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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० असंखे० भागहाणी० जह० अंतोमु०, सम्म० एयस०, उक० सगट्टिदी | संखे० भागहाणी० जह० उक्क० एयसमओ । अनंताणु०४ असंखे० भागहाणी ० जह० तोमुहुत्तं, उक्क० संगट्ठिदी । तिण्णिहाणी ० जह० उक्क० एयस० । एवं जाव० । ४१४ $ ८८८. अंतराणुग० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० विहत्तिभंगो | एवं बारसक० - णवणोक० । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियहं । तिण्णिसंजल ०- पुरिसवेद० असंखे० गुणवड्डी० णत्थि अंतरं । असंखे०गुणहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपो० परियहं । अनंताणु०४ विहत्तिभंगो | सम्म०- सम्मामि० विहत्तिभंगो | णवरि असंखे ०गुणहाणी ० जह० उक्क० अंतोमु० । ९ ८८९. आदेसेण सव्वणेरइय- तिरिक्ख० देवा जाव सहस्सार ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म० सम्मामि० असंखे० गुणहाणी णत्थि । पंचिदियतिरिक्खतिए ३ छव्वीसं पयडीणं विहत्तिभंगो । णवरि संखे० गुणवड्डी० जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडिपुत्रतं । सम्म० सम्मामि० विहत्तिभंगो | णवरि असंखे० गुणहाणी णत्थि | पंचि०तिरिक्खअपञ्ज० - मणुसअपज्ज० छन्वीसं पयडीणं विहत्तिभंगो | णवरि संखे० गुणवड्डी० जह० मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वका एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । तीन हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । इसीप्रकार बारह कषाय और नौ नोकपायोंके त्रिषयमें जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके वक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तीन संज्वलन और पुरुषवेद की असंख्यात गुणवृद्धिका अन्तर नहीं है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्ति के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आदेश से सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च समान्य देव और सहस्रार कल्पतक के देवोंमें भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यातगुणहानि नहीं है । पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में छब्बीस प्रकृतियों का भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि नहीं है । पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में छच्चीस प्रकृतियों का भंग स्थितिविभक्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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