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________________ ४१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ असंखेज्जगुणहाणी णत्थि । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख०३-देवगदिदेवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति पंचिंतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि० असंखेज्जगुणहाणी णत्थि । मणुसतिए ओघं । णवरि तिण्णिसंजल०पुरिसवेद० असंखेगुणवड्डी णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति २६ पयडीणं विहत्तिभंगो। सम्म०-सम्मामि० अत्थि चत्तारि वड्डी दो हाणी अवत्त० । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० अत्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी । अणंताणु०४ अत्थि चत्तारि हाणी । एवं जाव० । ८८०. संपहि समुकित्तणाणंतरं परूवणाणियोगद्दारपदुप्पायणट्ठमिदमाहॐ परूवणा । एदासिं विधिं पुध पुध उपसंदरिसणा परूवणा णाम । ६८८१. एदासिमणंतरसमुक्कित्तिदाणं वड्डि-हाणीणमवट्ठाणावत्तव्वाणुगयाणं पुध पुध णिरुंभणं कादूण विसयविभागपदंसणं परूवणा णाम भवदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । सा च विसयविभागपरूवणा सामण्णसमुकित्तणाए चेव किं चि सूचिदा ति ण पुणो पवंचिजदे। अथवा स्वामित्वादिमुखेनैव तासां विभागशः कथनं प्ररूपणेति व्याचक्ष्महे, स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि नहीं है । इसीप्रकार सब नारकी, तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी असंख्यातगुणवृद्धि नहीं है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें २६ प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, दो हानि और प्रवक्तव्यपद हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थ सिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी चार हानियाँ हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। १८८०. अब समुत्कीर्तनाके बाद प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * प्ररूपणाका अधिकार है। इनकी विधिको पृथक् पृथक् दिखलाना प्ररूपणा है। १८८१. जिनकी पूर्वमें समुत्कीर्तना कर आये हैं तथा जो अवस्थान और प्रवक्तव्यपदसे अनुगत हैं ऐसी इन वृद्धियों और हानियोंको पृथक् पृथक् विवक्षित कर विषयविभागका दिखलाना प्ररूपणा है ऐसा यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है और वह विषयविभागकी प्ररूपणा किश्चित् सामान्यसे समुत्कीर्तनामें ही सूचित हो जाती है, इसलिए अलगसे विस्तार नहीं करते हैं। अथवा स्वामित्व आदिके द्वारा ही उनका विषयविभागके अनुसार कथन करना प्ररूपणा है ऐसा आगे कहेंगे, क्योंकि स्वामित्व आदिका कथन किये बिना उनके विशेषका निर्णय नहीं बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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