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________________ गा०५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिवड्डिसंकमे एवजीवेणे कालो ४११ स्वामित्वादिप्ररूपणामंतरेण तद्विशेषनिर्णयानुपपत्तेः । तद्यथा-सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थोघेण मिच्छ० विहत्तिभंगो । एवं बारसक०णवणोकणवरि अवत्त० भुजगारभंगो। तिण्णिसंज०-पुरिसवेद० असंखे० गुणवड्डी कस्स? अण्णदरस्स उवसामयस्स जो चरिमट्टिदिबंधं संकामेमाणो देवेसुववण्णो तस्स पढमसमयदेवस्स असंखे०गुणवड्डी । अणंताणु०४ विहत्तिभंगो। सम्म०-समममि० विहत्तिभंगो । णवरि असंखेजगुणहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइद्विस्स दंसणमोहक्खवयस्स । $ ८८२. आदेसेण सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय०३-देवा जाव सहस्सारे त्ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि० असंखे०गुणहाणी णत्थि । पंचिं०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सव्वपयडीणं सव्वपदाणि कस्स ? अण्णद० । मणसतिए३ ओघ । णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० भुजगारभंगो। तिण्णिसंजल०-पुरिसवेद० असंखे०गणवड्डी णत्थि । आणदादि णवगेवजा त्ति छब्बीसं पयडीणं विहत्तिभंगो। सम्म०-सम्मामि० विहत्तिभंगो । णवरि संखे०गुणहाणी असंखे०गुणहाणी णत्थि । एवं जाव० । $ ८८३. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० सकता । यथा-स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। इसीप्रकार बारह कपायों और नौ नोकषायोंका जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके प्रवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी असंख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर उपशामक जीव अन्तिम स्थितिबन्धका संक्रम करता हुआ मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उस प्रथम समयवर्ती देवके असंख्यातगुणवृद्धि होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। ८८२. आदेशसे सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद किसके होते है ? अन्यतरके होते हैं। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषायों और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी असंख्यातगुणवृद्धि नहीं है । आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १८८३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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