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________________ ग० ५८ ] उत्तरपयडिट्टिदिवढिसंकमे समुक्त्तिणा ४०६ भावादो। संपहि एत्थतणविसेसपदुप्पायणट्ठमिदमाह ॐ पवरि अवत्तव्वयमस्थि । $ ८७८. मिच्छत्तस्सावत्तव्वयं णत्थि त्ति वुत्तं । एत्थ वुण विसंजोयणापुव्वसंजोगे सव्वोवसामणापडिवादे च तस्संभवो अत्थि त्ति एसो विसेसो। अण्णं च पुरिसवेद० तिण्हं संजलणाणमसंखेजगुणवड्डिसंभवो वि अत्थि, उवसमसेढीए अप्पप्पणो णवकबंधसंकमणावत्थाए कालं काऊण देवेसुववण्णयम्मि तदुवलद्धीदो । ण चायं विसेसो सुत्ते णत्थि त्ति संकणिज्जं, अवत्तव्वसंकामयसंभववयणेणेव देसामासयभावेण संगहियत्तादो मरणसण्णिदवाधादेण विणा सत्थाणे चेव समुक्कित्तणाए मुत्तयारेणाहिप्पेयत्तादो वा'। एवमोघसमुकित्तणा गया। $ ८७९. संपहि आदेसपरूवणद्वमुच्चारणं वत्तहस्सामो। तं जहा- समुकित्तणाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० अत्थि तिण्णि वड्डी चत्तारि हाणी अवट्ठिदं च । एवं तेरसक०-अट्ठणोकसा० । णवरि अवत्त० अस्थि । सम्म०सम्मामि०-तिण्णिसंज०-पुरिसवे० अत्थि चत्तारि वड्डी हाणी अवट्ठि० अवत्त० । आदेसेण णेरइय० छव्वीसं पयडीणं विहत्तिभंगो। सम्म०-सम्मामि० विहत्तिभंगो। णवरि यहाँ पर भी सम्भव होनेके प्रति मिथ्यात्वसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। अब यहाँ पर जो विशेषता है उसका कथन करनेके लिए यह आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद भी है। ६८७८. मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नहीं है यह कह आये हैं। परन्तु यहाँ पर विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर और सर्वोपशामनासे प्रतिपात होने पर वह सम्भव है इसप्रकार यह विशेष है। साथ ही इतनी विशेषता और है कि पुरुषवेद और तीन संज्वलनोंकी असंख्यातगुणवृद्धि भी सम्भव है, क्योंकि उपशमश्रेणिमें अपने अपने नवकवन्धकी संक्रमावस्थामें मरकर देवोंमें उत्पन्न होने पर उक्त पदकी उपलब्धि होती है। यह विशेषता सूत्र में नहीं कही ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इन प्रकृतियोंके संक्रामक जीव सम्भव हैं यह वचन देशामर्षक है, इसलिए इसी वचनसे उक्त विशेषताका संग्रह हो जाता है। अथवा मरण संज्ञावाले व्याघातके बिना स्वस्थानमें ही सूत्रकारको समुत्कीर्तना अभिप्रेत रही है। यही कारण है कि सूत्रकारने उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका सूत्र में संकेत नहीं किया है। इस प्रकार ओघसे समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६८७६. अब आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा-समुत्कीर्तना की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पद हैं। इसी प्रकार तेरह कषायों और आठ नोकषायोंका जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद भी है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपद हैं। आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग १. ता प्रतौ -यारे ( रा ) [ णा ] हिप्पायत्तादो वा इति पाठः । ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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