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________________ ४०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ परित्तासंखेजेण खंडिय तत्थेयखंडयमेत्तसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मिएण मिच्छाइट्ठिणा मिच्छत्तस्स तप्पाओग्गजहण्णंतोकोडाकोडिमेत्तद्विदीए सह उवसमसम्मत्ते पडिवण्णे उवसमसम्मत्तपाओग्गमिच्छत्तधुवद्विदिणिबंधणाणमसंखेज्जगुणवड्डिवियप्पाणमपच्छिमो वियप्पो होइ । एवमुवसमसम्मत्तपाओग्गमिच्छत्तद्विदीणं पशेयणिरोहं काऊण असंखेजगुणवड्डिविसयो अणुमग्गियव्वो जाव तत्तो संखेज्जगुणमेत्ततोकोडाकोडिपमाणं पत्तो ति। एवं चउण्हं वड्डीणं विसयविभागो परूविदो। ८७६. संपहि हाणिचउकस्स विसओ मिच्छत्तस्सेवाणुगंतव्यो । संपहि अवट्ठाणविसयपरूवणा कीरदे । तप्पाओग्गजहण्णंतोकोडाकोडिमेत्तसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मादो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिएण सम्मत्ते गहिदे पयदकम्माणमवढिदो द्विदिसंकमो होइ । एत्तो उबरिमट्टिदिवियप्पेहि मि समयुत्तरमिच्छत्तहिदिपडिग्गहवसेणावट्ठाणसंकमो वत्तव्यो जाव अंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडि त्ति । णिस्संतकम्मियमिच्छाइद्विणा उवसमसम्मत्ते पडिवण्णे तन्विदियसमए अवत्तव्वसंकमो होइ । तम्हा चउव्विहा वड्डी हाणी अवठ्ठाणमवत्तव्वं च पयदकम्माणमत्थि त्ति सिद्धं । 8 सेसकम्माणं मिच्छत्तभंगो। ८७७. एत्थ सेसग्गहणेण सोलसकसाय-णवणोकसायाणं गहणं कायव्वं । तेसिं मिच्छत्तभंगो, तिण्हं वड्डीणं चउण्हं हाणीणमवट्ठाणस्स च संभवं पडि तत्तो.विसेसाजघन्य परीतासंख्यातसे भाजित कर वहाँ पर एक भागप्रमाण सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्वकी तत्प्रायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण जघन्य स्थितिके साथ उपशमसम्यक्त्वके प्राप्त होने पर उपशमसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वकी ध्रुयस्थितिको निमित्तकर असंख्यातगुणवृद्धिके प्राप्त होनेवाले विकल्पोंमें अन्तिम विकल्प होता है। इस प्रकार उपशमसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वकी स्थितियों में से प्रत्येकको विवक्षित कर असंख्यातगुणवृद्धिका विषय तब तक जानना चाहिए जब जाकर सम्यक्त्वकी पूर्वोक्त स्थितिसे संख्यातगुणा अन्तःकोड़ाकोड़ीका प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार चार वृद्धियोंके विषयविभागका कथन किया। ६८७६. हानिचतुष्कका विषय मिथ्यात्वके समान ही जानना चाहिए । अब अवस्थानके विषयका कथन करते हैं-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके तत्प्रायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे मिथ्यात्वके एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मवाले जीवके द्वारा सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर प्रकृत कर्मोका अवस्थित स्थितिसत्कर्म होता है। इससे आगे उपरिम स्थितिविकल्पोंके साथ भी मिथ्यात्वके एक समय अधिक स्थितिके प्रतिग्रह वश अवस्थानविकल्प अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक कहने चाहिए। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मसे रहित मिथ्यादृष्टिके द्वारा उपशमसम्यक्त्वके प्राप्त होने पर उसके दूसरे समयमें अवक्तव्यसंक्रम होता है, इसलिए चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि, अवस्थान और अवक्तव्य प्रकृत कर्मोंका है यह सिद्ध हुआ। * शेष कर्मोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। ६८७७. यहाँपर शेष पदके ग्रहण करनेसे सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका ग्रहण करना चाहिए। उनका भंग मिथ्यात्वके समान है, क्योंकि तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थानके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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