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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिटिदिपदणिक्खेवसंकमे सामित्तं ३६३ ८३७. कुदो एवं कीरदे चे ? ण, समुहेणेदेसिं चालीससागरोवमकोडाकोडीणं बंधाभावेण कसायुक्कस्सद्विदिपडिग्गहमुहेण तहा सामित्तविहाणादो। तदो बंधावलियणं कसायट्टिदिमुक्कस्सियं सगपाओग्गंतोकोडाकोडिटिदिसंकमे पडिच्छियण संकमणावलियादिकंतस्स पयदसामित्तमिदि सुसंबद्धमेदं । हाणीए गत्थि विसेसो, उक्कस्सट्ठिदिघादविसए तस्सामित्तपडिलंभस्स सव्वत्थ णाणत्ताभावादो। एत्थ पमाणाणुगमे कसायभंगो । णवरि णवंसयवेदारइ-सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्सट्ठिदिवुड्डी अवट्ठाणं च वीससागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमासंखेजभागब्भहियाओ। कुदो ? कसायाणमुक्कस्सद्विदिबंधकाले तेसिं पि रूवूणाबाहाकंडएणूणवीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिबंधस्स दुप्पडिसेहत्तादो । एबमेदं परूविय संपहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पयदसामित्तविहाणट्टमुवरिमो सुत्तपबद्धो 8 सम्मत्त-सम्मामिच्छ्त्ताणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ८३८. सुगमं । वेदगसम्मत्तपाओग्गजहएणहिदिसंतकम्मियो मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदि बंधियूण द्विदिघादमकाऊण अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवएणो तस्स विदियसमयसम्माइहिस्स उक्कस्सिया वड्डी।। ६८३७. शंका-ऐसा क्यों किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि स्वमुखसे इनका चालीस कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण बन्ध नहीं होनेसे कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रतिग्रह होनेके बाद उसके द्वारा उस प्रकारके स्वामित्वका विधान किया है। इसलिए कषायोंकी बन्धावलिसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिको अपने योग्य अन्तःकोड़ाकोडिप्रमाण स्थितिमें संक्रमित करके संक्रमावलिके बाद उसका प्रकृत स्वामित्व प्राप्त होता है यह सुसम्बद्ध है। हानिमें कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिघातको विषयकर उत्कृष्ट हानिके स्वामित्वकी प्राप्ति सर्वत्र भेदरहित है। यहाँ पर प्रमाणका अनुगम करने पर कषायोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिवृद्धि और अवस्थान पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक बीस कोड़ाकोड़ी सागर है, क्योंकि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकालमें उनका भी एक कम आबाधाकाण्डकसे न्यून बीस कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिबन्ध प्रतिषेध करनेके लिए अशक्य है। इस प्रकार इसका यहाँ पर कथन करके अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके प्रकृत स्वामित्वका विधान करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यावकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ६८३८. यह सूत्र सुगम है। * वेदकसम्यक्त्वके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला जो जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर स्थितिघात किये बिना अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, द्वितीय समयवर्ती उस सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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