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________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंतोकोडाकोडिमेत्तो । किमट्ठमेदं थोवं बहुत्तमणवसरपत्तमेव सामित्तपरूवणाए वुत्तमिदि सयमेवासंकिय तत्थुत्तरमाह ® एदमप्पाबहुअस्स साहणं । ८३५. एदमणंतरपरूविदं द्विदिखंडयस्स सव्वमहंतं दाहजणिददिदिबंधपसरस्स च जं थोवबहुत्तं तमुक्कस्सवड्डि-हाणीणमुवरि भणिस्समाणथोवबहुत्तस्स साहणमिदि कट्ट सिस्सहिदट्ठमिह परूविदं, तम्हा णेदमसंबद्धमिदि । एवं ताव मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुक्कस्सवड्डि-हाणि-अवट्ठाणसामित्तं परूविय णोकसायाणं पि सामित्ताणुगमे एसो चेव कमो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * एवं णवणोकसायाणं । । ८३६. जहा मिच्छ्त्तादीणमुक्कस्सवड्डि-हाणि-अवट्ठाणसामित्तपरिक्खा कया तहा णवणोकसायाणं पि कायव्वा, पाएण साहम्मदंसणादो। विसेसो दु वड्डि-अवट्ठाणसामित्ते थोवयरो अस्थि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरं सुत्तद्दयमाह * णवरि कसायाणमावलियूणमुक्कस्सद्विदिपडिच्छिदूणावलियादीदस्स तस्स उक्कस्सिया वड्डी । से काले उक्कस्सयमवहाणं । उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण है । यह अनवसर प्राप्त अल्पबहुत्व स्वामित्व प्ररूपणामें किसलिए कहा है इस प्रकार स्वयं ही आशंका कर इस विषयमें उत्तर देते हैं यह अल्पबहुत्वका साधन है। १८३५. यह पहले जो स्थितिकाण्डकका और सर्वोत्कृष्ट दाहजनित स्थितिबन्धप्रसरका अल्पबहुत्व कहा है वह आगे कहे जानेवाले उत्कृष्ट वृद्धि-हानिसम्बन्धी अल्पबहुत्वका साधन है ऐसा समझकर शिष्योंके हृदयमें स्थित उक्त अल्पबहुत्वका यहाँ पर कथन किया है, इसलिए यह प्रकृतमें असंगत नहीं है। इसप्रकार मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वका कथन करके नोकषायोंके भी स्वामित्वका अनुगम करनेमें यही क्रम है ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं इसी प्रकार नौ नोकषायोंको उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए। ८३६. जिसप्रकार मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वकी परीक्षा की उसीप्रकार नौ नोकषायोंकी भी करनी चाहिए, क्योंकि इन सबके स्वामित्वमें प्रायः कर साधर्म्य देखा जाता है । परन्तु वृद्धि और अवस्थानके स्वामित्वमें थोड़ीसी विशेषता है, इसलिए उसे जतानेके लिए आगेके दो सूत्र कहते हैं___* किन्तु इतनी विशेषता है कि कषायोंकी एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकषायोंमें संक्रम करके एक आवलिके बाद उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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