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________________ गा० ५ ] उत्तरपयडिट्ठिदिपदणिक्खेवसंकमे सामित्तं ३६१ एवमुक्कस्सवड्डिपुत्वमवट्ठाणसामित्तं परूविय संपहि पयदकम्माणमुक्कस्सहाणीए सामित्तविहाणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ ॐ उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ६८३२. सुगम । जेण उकस्सद्विदिखंडयं घादिदं तस्स उक्कस्सिया हाणी। ८३३. जेसुक्कस्सहिदिसंकमादो अंतोमुहुत्तपडिभागेणुकस्सयं द्विदिखंडयं धादिदं तस्सुक्कस्सिया हाणी होइ, तत्थु कस्सद्विदिखंडयमेत्तस्स द्विदिसंकमस्स एकसराहेण परिहाणिदसणादो । केत्तियमेत्ते च तमुक्कस्सट्ठिदिखंडयं ? अंतोकोडाकोडिषरिहीण कम्मट्टिदिमेत्तं, उक्कस्सवुड्डीदो किंचूणपमाणत्तादो । एदस्सेव पमाणपरिच्छेदस्स साहण?मिदमाह ® जं उक्कस्सद्विदिखंडयं तं थोवं । जं सव्वमहंत दाहं गदो त्ति भणिदं तं विसेसाहियं । ___८३४. जमुक्कस्सट्ठिदिखंडयमुक्कस्सहाणीए विसईकयं तं थोवं । जं पुण उक्कस्सवड्डिपरूवणाए सव्वमहंतं दाहं गदो त्ति भणिदं तं विसेसाहियं । एत्थ कजे कारणोव यारेण सव्वमहंतदाहजणिदा वुड्डी चेव सव्वमहंतदाहसदेण णिट्ठिा । तदो उक्कस्सहाणीदो उक्कस्सट्ठिदिखंडयसरूवादो उक्कस्सिया वड्डी विसेसाहिया ति वुत्तं होइ । अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वृद्धिपूर्वक अवस्थानके स्वामित्वका कथन करके अब प्रकृत कर्मोकी उत्कृष्ट हानिके स्वामित्वका विधान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ६८३२. यह सूत्र सुगम है। * जिसने उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। ६८३३. जिसने उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमसे अन्तर्मुहूर्त कालमें प्रतिभग्न होकर उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकप्रमाण स्थितिसंक्रमकी एक बार में हानि देखी जाती है। शंका—वह उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक कितना है ? समाधान-अन्तःकोड़ाकोड़ी कम कर्मस्थितिप्रमाण है, क्योंकि वह उत्कृष्ट वृद्धिसे कुछ न्यून प्रमाण है। इसीके प्रमाणका परिच्छेद साधनेके लिए यह आगेका सूत्र कहते हैं * जो उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक है वह स्तोक है। जो सर्वोत्कृष्ट दाहको ग्राप्त हुआ है ऐसा कहा है वह विशेष अधिक है। ६८३४. उत्कृष्ट हानिका विषयीकृत जो उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक है वह स्तोक है। तथा उत्कृष्ट वृद्धिकी प्ररूपणामें सर्वोत्कृष्ट दाहको प्राप्त हुआ ऐसा कहा है बह विशेष अधिक है । यहाँ पर कार्यमें कारणका उपचार करनेसे सर्वोत्कृष्ट दाहजनित वृद्धि ही सर्वोत्कृष्ट दाह शब्द द्वारा निर्दिष्ट की गई है। इसलिए उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकस्वरूप उत्कृष्ट हानिसे उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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