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________________ २२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ४६. एवं पढमगाहाए पदच्छेदमुहेणमत्थविवरणं काढूण संपहि विदियगाहाए पदच्छेदकरणट्ठमिदमाह - * 'एक्ककाए संकमो दुविहो संकमविही य पयडीए' त्ति पदस्स अत्थो काव्वो । पडिबद्धस्सेदस्स विदियगाहापुव्वद्धस्स ४७. पयडि - पयडिट्ठाणसंक मेसु अवयवत्थविवरणं कस्सामो ति पइजात्तमेदं । अब यहाँ क्रमसे चूर्णिसूत्र और टीकाके अनुसार प्रकृतिसंक्रमके विषय में इन उपक्रम आदिका खुलासा करते हैं— उपक्रमके पाँच भेद हैं- आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार। आनुपूर्वीके तीन भेदोंमेंसे पूर्वांनुपूर्वीके अनुसार प्रकृतिसंक्रम यह पहला भेद है । पश्चादानुपूर्वीके अनुसार चौथा और यत्रतत्रानुपूर्वीके अनुसार पहला, दूसरा, तीसरा या चौथा भेद है । नामके कई भेद हैं । उनमेंसे इसका गौण्यनाम है । प्रमाण ग्रन्थकी अपेक्षा संख्यात और अर्थी अपेक्षा अनन्त है । वक्तव्यता के तीन भेद हैं । उनमें से इसमें स्वसमयवक्तव्यता है । अधिकार इसके आठ हैं जो निर्गमका कथन करते समय बतलाये जायगे । उपक्रम के बाद दूसरा भेद निक्षेप है । प्रकृतिसंक्रमको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार निक्षेपोंमें घटित करके बतलाया है । यद्यपि मूलकर्ताने केवल चार निक्षेपोंकी सूचनामात्र की है । तदनुसार वे चार निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भी हो सकते हैं। पर चूर्णि सूत्रकारने इन चार निक्षेपोंका प्रकृत में ग्रहण न करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार निक्षेपका ही ग्रहण किया है। मालूम होता है कि संक्रम में नाम और स्थापनाकी उतनी उपयोगिता नहीं है जितनी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी उपयोगिता है । इसीसे प्रकृतमें नाम और स्थापनाको छोड़ दिया गया है । उदाहरणार्थ किसीका प्रकृतिसंक्रम ऐसा नाम रखनेसे या किसीमें यह प्रकृतिसंक्रम है ऐसी स्थापना करनेसे प्रकृत प्रकृत्तिसंक्रमके समझने में विशेष सहायता नहीं मिलती पर द्रव्यादिकके संक्रम से यथायोग्य कर्मप्रकृतियोंके संक्रमण में सहायता मिलती है इसलिये प्रकृतिसंक्रमकी निक्षेप व्यवस्था करते हुए इन चार निक्षेपोंकी यहाँ योजना की है । उदाहरणार्थ वसन्त ऋतुके बाद ग्रीष्म ऋतु आनेपर जीव गर्मीका अधिक अनुभव करता है, इससे जीवको गर्मीजन्य तीव्र वेदना होती है, अतः ऐसे अवसर पर गर्मीका निमित्त पाकर असाताकी उदय व उदीरणा होने लगती है तथा साता कर्मका असातारूप संक्रम भी होने लगता है । इसी प्रकार सभी निक्षेपोंके सम्बन्धमें यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये । प्रकृतमें नयका इतना ही प्रयोजन है कि इन निक्षेपोंमें कौन निक्षेप किस नयका विषय है । सो इसका विशेष खुल. सा पूर्व में कर आये हैं, अतः यहाँ नहीं किया गया है । अब रहा निर्गम सो प्रकृतमें यह आठ प्रकारका है। विशेष खुलासा इसका स्वयं टीकाकारने ही किया है इस लिये यहाँ इसका खुलासा नहीं किया जाता हैं । किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि अन्यत्र जिसे अनुगम कहा है वही यहाँ निर्गम शब्द द्वारा कहा गया है । $ ४६. इस प्रकार पदच्छेदद्वारा प्रथम गाथाके अर्थका खुलासा करके अब दूसरी गाथाका पदच्छेद करनेके लिये यह आगेका सूत्र कहते हैं - 'एक्क्काए संकमो दुविहो संकमविही य पयडीए' इस पदका अर्थ चाहिये । ४७. यह प्रतिज्ञा सूत्र है जिसके द्वारा यह प्रतिज्ञा की गई है कि अब प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम इनसे सम्बन्ध रखनेवाले इस दूसरी गाथा के पूर्वार्ध के अर्थका विशेष खुलासा करेंगे । Jain Education International करना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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