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________________ गा० २६ ] पढमगाहाए पदच्छेदपरूवणा २१ संकमो जहा अट्ठावीस संतकम्मियमिच्छाइट्टिम्हि सत्तावीसाए। तदसंकमो जहा तत्थेव अट्ठावीसाए । पयडिपडिग्गहो जहा मिच्छत्तं मिच्छाइट्ठिम्मि संकमंताणं सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं । को पडिग्गहो णाम ? संकमाहारे प्रतिगृह्यतेऽस्मिन् प्रतिगृह्णातीति वा पडिग्गहस उपायणादो । तदपडिग्गहो जहा तत्थेव सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि । जहा वा दंसण - चरित्तमोहणीयपयडीणमण्णोष्णं पेक्खिऊण पडिग्गहत्ताभावो । पयडिट्ठाण - पडिग्डहो जहा मिच्छाइट्टिम्मि बावीसपयडिसमुदायप्पयमेयं पयडिपडिग्गहडाणमिदि । पयडिट्ठाण अपडिग्गहो जहा सोलसादीणं ठाणाणमण्णदरो । एवमेसो अट्ठविहो णिग्गमो परू विदो चुण्णिसुत्तारेण पयदे च णिग्गमो होइ अट्ठविहो त्ति बीजपदावलंबणेण । और सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रमित नहीं होना यह प्रकृतिअसंक्रमका उदाहरण है । अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि के सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रमित होना यह प्रकृतिस्थान संक्रमका उदाहरण है । तथा उसी मिथ्यादृष्टिके अट्ठाईस प्रकृतियों का संक्रमित नहीं होना यह प्रकृतिस्थानअसंक्रमका उदाहरण है । प्रकृतिप्रतिग्रहका उदाहरण, जैसे- मिध्यादृष्टि गुणस्थान में संक्रमणको प्राप्त हुई सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों का मिथ्यात्वप्रकृति प्रकृतिप्रतिग्रह है । शंका — प्रतिग्रह किसे कहते हैं ? समाधान — संक्रमरूप आधार के सद्भाव में प्रतिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार संक्रमको प्राप्त हुआ द्रव्य जिसमें ग्रहण किया जाता है या जो ग्रहण करता है उसे प्रतिग्रह कहते हैं। 1 प्रकृतिप्रतिग्रहका उदाहरण, जैसे—उसी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां प्रकृतिप्रतिग्रह रूप हैं । अथवा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये परस्पर में प्रतिग्रहरूप नहीं हैं, इसलिये दर्शन मोहनीयकी कोई भी प्रकृति चरित्रमोहनीय की अपेक्षा प्रकृतिप्रतिग्रह है और चरित्रमोहनीयकी कोई भी प्रकृति दर्शन मोहनीयकी अपेक्षा प्रकृति प्रतिग्रह है । प्रकृतिस्थानप्रतिग्रहका उदाहरण -- जैसे, मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें बाईस प्रकृतियों का समुदायरूप एक प्रतिग्रहस्थान है । प्रकृतिस्थानप्रतिग्रहका उदाहरण, जैसे सोलह आदि स्थानों में से कोई एक स्थान प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह है । इस प्रकार 'पयदे च गिग्गमो होइ वि' इस बीजपद आलम्बनसे चूर्णिसूत्रकारने यह आठ प्रकारका निर्गम कहा 1 विशेषार्थ — पहले संक्रमका उपक्रम श्रादि चारके द्वारा कथन करते हुए अन्तमें चूर्णिसूत्रकारने संक्रमके चार अर्थाधिकार बतलाये रहे । उनमें प्रथम अर्थाधिकार प्रकृतिसंक्रम है, इसलिए सर्वप्रथम इसका वर्णन क्रमप्राप्त है । इसीसे इसका पुनः उपक्रम आदि चारके द्वारा निर्देश किया गया है । यह निर्देश केवल चूर्णिसूत्रकारने ही नहीं किया है किन्तु मूलग्रन्थकर्ता भी किया है। इसके लिये तीन गाथाएं आई हैं । प्रथम गाथामें उपक्रम, निक्षेप और निर्गम (अनुगम) के भेद देकर नययोजना करनेकी सूचना की गई है तथा दूसरी और तीसरी गाथामें निर्गमके विषय में विशेष खुलासा और निर्गमके अवान्तर भेदोंका नामनिर्देश किया गया है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ये गाथाएं केवल प्रकृतिसंक्रम के विषय में ही क्यों लागू होती हैं, सामान्य संक्रमके विषयमें क्यों नहीं । सो इसका यह खुलासा है कि इन गाथाओं में स्पष्टतः प्रकृतिसंक्रमके अवान्तर भेदोंका ही एकमात्र निर्देश किया है। इससे ज्ञात होता है कि इन गाथाओं का सम्बन्ध केवल प्रकृतिसंक्रमसे ही हैं । १. ० प्रतौ - मेवं पडिग्गहद्वारा मिदि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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