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________________ जयधवलासहिदेकसायपाहुडे [ बंधगो ६ 8 ‘णयविहि पयदं' ति एत्थ णो वत्तव्वो। ६४४. णयविहि पयदमिदि जमत्थपदं, एत्थ णओ वत्तव्यो, तेण विणा णिक्खेवत्थविसयणिण्णयाणुववत्तीदो। तत्थ णेगमो सव्वपयडिसंकमे इच्छइ । संगहववहारा कालसंकममवणेति । एवमुजुसुदो वि। सद्दणयस्स भावणिक्खेवो एको चेव । एत्थ दव्वट्ठियणयवत्तव्वदाए कम्मदव्वपयडिसंकमें पयदं । ___'पयदे च णिग्गमो होइ अविहो' त्ति पयडिसंकमो पयडिअसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो पयडिपडिग्गहो पयडिअपडिग्गहो पयडिहाणपडिग्गहो पयडिहाणपडिग्गहो त्ति एसो णिग्गमो अट्ठविहो । ४५. पयदे च णिग्गमो होइ अट्ठविहो त्ति एत्थ बीजपदे पयडिसंकमासंकमादिभेदभिण्णो अट्ठविहो णिग्गमो अंतभूदो त्ति भणिदं होइ । तत्थ पयडिसंकमो त्ति भणिदे एगेगपयडिसंकमो गहेयव्यो, पयडिट्ठाणसंकमस्स पुध परूवणादो। एवं सेसाणं पि सुत्ताणुसारेण अत्थपरूवणा कायव्वा । संपहि अट्ठण्हमेदेसि सरूवणिदरिसणमुद्देसमेत्तेण कस्सामो । तं कथं ? पयडिसंकमो जहा मिच्छत्तपयडीए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु । पयडिअसंकमो जहा तिस्से चेव मिच्छाइद्विम्मि सासणसम्माइडिम्मि सम्मामिच्छाइडिम्मि वा। पयडिट्ठाण __* 'णयविधि पयदं' इस पदके अनुसार यहाँ पर नयका व्याख्यान करना चाहिये। ४४. प्रथम गाथामें 'णयविहि पयर्द' यह जो अर्थपद आया है तदनुसार यहांपर नयका कथन करना चाहिये, क्योंकि इसके बिना निक्षेपोंका अर्थविषयक निर्णय नहीं हो सकता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार निक्षेपोंमेंसे नैगमनय सब प्रकृतिसंक्रमोंको स्वीकार करता है। संग्रह और व्यवहारनय काल संक्रमको स्वीकार नहीं करते हैं। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय भी कालसंक्रमको स्वीकार नहीं करता है। तथा शब्दनयका एक भावनिक्षेप ही विषय है। इस अधिकारमें द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा कर्मद्रव्यप्रकृतिसंक्रमका प्रकरण है। * पयदे च णिग्गमो होइ अट्ठविहो' इस पदके अनुसार प्रकृतिसंक्रम, प्रकृतिअसंक्रम, प्रकृतिस्थानसंक्रम, प्रकृतिस्थानअसंक्रम, प्रकृतिप्रतिग्रह, प्रकृतिअप्रतिग्रह, प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानअप्रतिग्रह यह आठ प्रकारका निर्गम है।। ____४५. 'पयदे च णिग्गमो होइ अट्ठविहो' इस बीजपदमें प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिअसंक्रम आदिके भेदसे आठ प्रकारका निर्गम अन्तर्भूत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उनमेंसे प्रकृतिसंक्रमपदसे स्कैकप्रकृतिसंक्रमको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृतिस्थानसंक्रमका अलगसे कथन किया है । इसी प्रकार सूत्रके अनुसार शेष निर्गमोंके अर्थका भी कथन करना चाहिये। अब इन आठोंके स्वरूपका निर्देश नाममात्रको करते हैं। यथा-मिथ्यात्व प्रकृतिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित होना यह प्रकृतिसंक्रमका उदाहरण है । तथा उसी मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके रहते हुए सम्यक्त्व १. ता०प्रतौ कम्मपयडिसंकमे इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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