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________________ ३३३ गा०५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिसंकमे एयजीवेण अंतरं ३३३ कस्संतरमंतोमुहुत्तं । एवं जाव०। 9 एत्तो जहएषयमंतरं। ६६७१. एत्तो उक्कस्सहिदिसंकामयंतरविहासणादो उवरि जहण्णद्विदिसंकामयंतरं कस्सामो ति पइजासुत्तमेदं । अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व और बारह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम होने के बाद पुनः वह अन्तमुहूर्तके अन्तरसे ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि एक बार इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर पुनः यह अन्तमुहूर्तके बाद ही होता है और संक्रम बन्धके अनुसार होता है, अतः यहाँ उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। मात्र नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय बन जाता है। कारण कि क्रोधादि कषायोंमेंसे एकके बाद दूसरेका एक एक समयके अन्तरसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर तथा एक एक समयके अन्तरसे उनका नौ नोकषायोंमें संक्रम होकर नौ नोकषायोंका भी एक एक समयके अन्तरसे उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम सम्भव है। इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है यह स्पष्ट ही है । इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। जो जीव अन्तमुहूर्तके अन्तरसे दो बार वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है और मिथ्यात्वमें दोनों बार वेदकसम्यक्त्व होनेके पूर्व मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके उसका काण्डकघात नहीं करता उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त देखा जाता है तथा जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समयके लिए सासादन सम्यग्दृष्टि होकर दूसरे समयमें मिथ्यादृष्टि हो जाता है उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय देखा जाता है, इसलिए तो इन दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । तथा इन दोनों प्रकृतियोंकी उपार्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक सत्ता न हो कर उसके प्रारम्भमें और अन्तमें इनका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम हो यह सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका शेष सब अन्तर कथन तो बारह कषायोंके समान होनेसे उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । मात्र इनके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमके उत्कृष्ट अन्तरमें कुछ फरक है। बात यह है कि जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर देता है उसके कुछ कम दो छयासठ सागर काल तक इनकी सत्ता नहीं पाई जाती, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ चारों गतियोंमें सब प्रकृतियोंके स्थितिसंक्रमका अन्तरकाल स्थितिविभक्तिके समान बतलाकर मनुध्यत्रिकमें चार नोकषायोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल एक आवलि या एक आवलिका असंख्यातवाँ भाग न कह कर जो अन्तर्मुहूर्त कहा है सो उसका कारण यह है कि उपशमश्रेणिमें हास्य, रति, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अन्तमुहूर्त काल तक नहीं होता। * इससे आगे जघन्य अन्तरकालका अधिकार है। ६६७१. इससे अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिसंक्रामकके अन्तरका कथन करनेके बाद जघन्य स्थितिसंक्रामकका अन्तर कहेंगे इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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