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________________ -- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ बंधगो ६ 8 सव्वासिं पयडीणं णत्थि अंतरं। $ ६७२. सव्वासिं मोहपयडीणं जहण्णद्विदिसंकामयस्स णत्थि अंतरं, खवयचरिमफालीए चरिमद्विदिखंडए समयाहियावलियाए च लद्धजहण्णसामित्ताणमंतरसंबंधस्स अचंताभावेण णिसिद्धत्तादो। एदेण सामण्णवयणेणाणताणुबंधीणं पि अंतराभावे पसत्ते तण्णिवारणमुहेणंतरसंभवपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्त ॐणवरि अणंताणुबंधीणं जहएपहिदिसंकामयंतरं जहएणेण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट। ६ ६७३. विसंजोयणाचरिमफालीए लद्धजहण्णभावस्साणंताणु०चउक्कस्स विदिसंकमस्स सव्वजहण्णविसंजुत्त-संजुत्तकालेहि अंतरिय पुणो वि विसंजोयणाए कादुमाढत्ताए चरिमफालिविसए लद्धमतोमुहुत्तं होइ । उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्टपरूवणा सुगमा । ... एवमोघेण जहण्णंतरं गयं । ।.. ___ * सब प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है । ६६७२. सब मोहप्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि इनका अपने व्ययके अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम फालिके पतन होते समय और एक समय अधिक एक आवलि काल रहनेपर जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है, इसलिए उनके अन्तरकालका अत्यन्त अभाव होनेसे उसका निषेध किया है। इस सामान्य वचनसे अनन्तानुबन्धियोंका भी अन्तराभाव प्राप्त हुआ, इसलिए उसके निषेध द्वारा उनका अन्तरकाल सम्भव है इसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य स्थितिके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६६७३. क्योंकि विसंयोजनाकी अन्तिम फालिके पतनके समय जिसने अपने स्थितिसंक्रामकका जघन्यपना प्राप्त किया है ऐसे अनन्तानुन्बधीचतुष्कका सबसे जघन्य विसंयोजना और संयोजनाके काल द्वारा अन्तर करके पुनः उसे विसंयोजना करनेके लिए ग्रहण करनेपर चरम फालिके पतनके समय तक अन्तर्मुहूर्त काल होता है । इसके उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा सुगम है। . विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति और संज्वलन लोभका जघन्य स्थितिसंक्रम अपनी अपनी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर होता है और शेष प्रकृतियोंका जघन्य 'स्थितिसंक्रम अपनी अपनी क्षपणाके समय अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय होता है, इसलिए ओघसे इनके जघन्य स्थितिसंक्रामकके अन्तरकालका निषेध किया है। किन्तु अनन्तानुबन्धीचतुष्क इस विधिका अपवाद है। कारण कि उसकी विसंयोजना होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही पुनः संयोजनापूर्वक विसंयोजना हो सकती है। तथा दो बार विसंयोजनारूप क्रिया होनेमें उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालका व्यवधान भी हो सकता है, इसलिए इनकी जघन्य स्थिति के संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। इस प्रकार ओघसे जघन्य अन्तरकाल समाप्त हुआ। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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