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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिहिदिसंकमे एयजीवेण कालो ३३१ समो। अज० जह० आवलि० समयूणा, उक्क० अंतोमु० । सम्म०-सम्मामि०-सत्तणोक० द्विदिविहत्तिभंगो। ६६८. मणु०३ मिच्छ० जह० द्विदिसं० जहण्णु० एयस०। अज० जह० खुद्दाभव० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी। सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-पुरिसवेद० जह० हिदिसं० जहण्णु० एयस० । अज० जह' एयस०, उक्क. सगद्विदी । एवमट्ठणोक० । णवरि जह० जहण्णु० अंतोमु० । मणुसिणीसु पुरिसवेद० छण्णोकभंगो। देवाणं णारयभंगो । एवं भवण-वाणवेत० । णवरि सगढिदी। जोदिसियादि० सव्वट्ठा त्ति द्विदिविहत्तिभंगो । एवं जाव० ।। काल एक समय है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समयकम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। विशेषार्थ-जो बादर एकेन्द्रिय जीव मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें उत्पन्न होते हैं उनके वहाँ उत्पन्न होनेके एक श्रावलि कालके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व आदि पन्द्रह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, इसलिए इन तीन प्रकारके तिर्यश्चोंमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा इस एक समय कालको एक आवलिमेंसे कम करने पर इनमें इन्हीं प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण होनेसे यह तत्प्रमाण कहा है। इनमें उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है । तात्पर्य यह है कि यहाँ जो भी काल कहा है उसे स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिए। . __$६६८. मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और पुरुषवेदके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार आठ नोकषायोंके विषयमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यनियोंमें पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ ओघसे जो प्रत्येक प्रकृतिके स्थितिसंक्रमका स्वामित्व बतलाया है उसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें सम्भव होनेसे यहाँ कालका विचार उसीके अनुसार कर लेना चाहिए। मात्र सब प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमका काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है इतनी विशेषता यहां अलगसे जान लेनी चाहिए। इसका कारण यह है कि इनमें छह नोकषायोंके स्थितिसंक्रमके स्वामित्वसे पुरुषवेदके स्थितिसंक्रमके स्वामित्वमें कोई भेद नहीं है। शेष कथन सुगम है। . १. प्रा०प्रतौ अन० जहएणु० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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