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________________ जयभवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ६६७. तिरिक्खेसु द्विदिवि० भंगो | पंचिं० तिरिक्ख ३ मिच्छ० - बारसक ०भय-दुर्गुछ० जह० ट्ठिदिसंका० जहण्णु० एयस० । अज० जह० आवलिया समयूणा, उक्क० सगट्टिदी' | सम्म० सम्मामि० अणताणु ० -सत्तणोक० ट्ठिदिविहत्तिभंगो । पंचि०तिरि० अपञ्ज० - मणुस प्रपञ्ज० मिच्छ० सोलसक० -भय-दुर्गुछ० जह० जहण्णुक० एग ३३० समय अधिक एक आवलि कालतक उक्त प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसंक्रम होता है, अतः यहाँ उनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय अधिक एक श्रवलिप्रमाण कहा है। उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है । यद्यपि सात नोकषायों की अपेक्षा यह काल इसी प्रकार बन जाता है । पर इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि यहाँ सात नोकषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका काल नरकमें उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद प्राप्त होता है अतः इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। नरकमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम उसकी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहनेपर एक समय के लिए प्राप्त होता है । सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम उद्वेलनाके समय अन्तिम स्थितिकाण्ड की अन्तिम फालिके पतन के समय प्राप्त होता है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रम विसंयोजनाके समय अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय प्राप्त होता है । अः यहाँ इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है । जो सम्यक्त्य और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला अभ्य गतिका जीव इनके अजघन्य स्थितिसंक्रममें एक समय शेष रहनेपर नरकमें उत्पन्न होता है उसके इनका एक समयके लिए अजघन्य स्थितिसंक्रम होता है। तथा जिस नारकीने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है वह यदि सासादनमें जाकर और एक आवलि कालके बाद एक समय के लिये इसकी जघन्य स्थितिका संक्रामक होकर मर जाता है तो उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय देखा जाता है । इसीसे यहाँ इन सम्यक्त्व आदि छह प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय बतलाया है। तथा इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर स्पष्ट ही है । यह सब काल प्रथम पृथिवीमें भी बन जाता प्रथम पृथिवीके कथनको सामान्य नारकियोंके समान बतलाया है । किन्तु यहाँ उत्कृष्ट एक सागर ही पाई जाती है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बतलाया है । स्थितिविभक्ति में सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका द्वितीयादि नरकोंमें जो काल बतलाया है वह यहाँ स्थितिसंक्रमकी अपेक्षासे अविकल हो जाता है : दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में सब भङ्ग स्थिति - विभक्तिके समान कहा है । § ६६७. तिर्यंचोंमें स्थितिविभक्तिके समान भङ्ग है । पञ्च न्द्रियतिर्यश्वत्रिक में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम एक श्रवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायका भङ्ग स्थितिविभक्तिके समान है। पचन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकों में और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट १. ता० - श्रा० प्रत्योः सगट्ठिदी समयूणा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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