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________________ ३०६ गा० ५८] उत्तरपयडिविदिसंकमे अद्धाच्छेदो भंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपजत्तएसु जोणिणीभंगो । णवरि अणंताणु०चउक्कं सह कसाएहि भाणियव्वं । ___६२५. मणुसतिए ओघ । वरि मणुसिणीसु पुरिसवेदस्स छण्णोकसायभंगो । देवेसु णारयभंगो। एवं भवण-वाणवेतः । णवरि सम्मत्त० जह० पलिदो० असंखे०भागो। जोदिसियाणं विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि जाव णवगेवजा त्ति सो चेव भंगो। णवरि सम्मत्तस्स ओघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्टे त्ति २३ पयडीणं जहण्णट्ठिदिसं०अद्धा० अंतोकोडाकोडी। सम्मत्ताणताणुबंधीणमोघमंगो। एवं जाव० । समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद योनिनी तिर्यञ्चोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग कषायोंके साथ कहना चाहिये ।। विशेषार्थ—सामान्य तिर्यञ्चोंमें और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद कहते समय एकेन्द्रियोंकी व जो एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें उत्पन्न हुए हैं उनकी प्रधानता है। इस अपेक्षासे मूलमें उक्त प्रकृतियोंका जो जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद बतलाया है वह बन जाता है। अब रहीं सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क ये छह प्रकृतियां सो इन मार्गणाओंमें सम्यक्त्वकी क्षपणा करनेवाला जीव भी उत्पन्न होता है और यहां सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना व अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना भी सम्भव है, अतः इन छह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद ओघके समान बतलाया है। किन्तु योनिनी तिर्यञ्चोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते, अत: वहां सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद ओघके समान नहीं प्राप्त होता। किन्तु उद्वेलनाकी अपेक्षा जो जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद सम्भव है वह यहां प्राप्त होता है, अतः इस मार्गणामें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदके समान बतलाया है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब व्यवस्था योनिनी तिर्यञ्चोंके समान बन जाती है, इसलिये इनके कथनको उनके समान कहा है। किन्तु इन दो मार्गणाओंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती, अतः यहां अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद शेष कषायोंके समान प्राप्त होनेके कारण वैसा बतलाया है। ६६२५. मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद छह नोकषायोंके समान है। देवोंमें जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदका भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व का जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ज्योतिषी देवोंमें जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें वही भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदका भंग ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें तेईस प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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