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________________ ३०८ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ६२३. एदीए दिसाए णिरयादिगदीसु वि जहण्णविदिश्रद्धाछेदो अणुमग्गणिजो त्ति वुत्तं होइ । एदेण सूचिदमादेसपरूवणमुच्चारणाणुसारेण वत्तइस्सामो । तं जहाआदेसेण णेरइय० मिच्छ०-बारसक०-णवणोक० द्विदिविहत्तिभंगो। सम्म० सम्मामि०अणंताणु०४ ओषो । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा त्ति मिच्छत्त-बारसक०णवणोकसायाणि ट्ठिदिविहत्तिभंगो। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ जहण्णट्टिदिसंक०अद्धा० पलिदो० असंखे०भागो।। ६२४. तिरिक्ख-पंचिं०तिरिक्खतिय०३ मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० द्विदिसं०अद्धा० सागरो० सत्त-सत्त० चत्तारि-सत्त० पलिदो० असंखे भागेणूणया । सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ ओघभंगो । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्त ६६२३, इसी पद्धतिसे नरक आदि गतियोंमें भी जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदका विचार कर लेना चाहिये यह इस सूत्रका तात्पर्य है। अब इस सूत्रद्वारा सूचित हुई आदेश प्ररूपणाको उच्चारणाके अनुसार बतलाते हैं । यथा-आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद ओधके समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद स्थितिविभक्तिके समान है। तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें और प्रथम नरकके नारकियोंमें सम्यक्त्वकी क्षपणा, सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना सम्भव होनेके कारण यहां इन तीनोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद श्रोधके समान बतलाया है। इसी प्रकार द्वितीयादि शेष नरकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके कारण तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना सम्भव होनेके कारण यहां इनका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । इसके सिवा सब नरकोंमें शेष कर्मोंका जहां जितना जघन्य स्थितिसत्त्व सम्भव है वहां उतना संक्रम पाया जाता है, अतः सर्वत्र शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद स्थितिविभक्तिके समान बतलाया है। किन्तु यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि जहां जितना जघन्य स्थितिसत्त्व होगा उससे यह जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद एक श्रावलिप्रमाण कम ही होगा, क्योंकि जो निषेक उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं उनका संक्रम नहीं होता है। ६६२४. तिर्यश्च सामान्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्यका असंख्यातवां भाग कम सात भागप्रमाण है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्यका असंख्यातवां भाग कम चार भागप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यश्चोंमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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