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________________ ३१० ३१० __ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६२६. सव्व-णोसव्व-उक्कस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णट्ठिदिसंक० द्विदिविहत्तिभंगो। ६२७. सादि-अणादि-धुव-अद्भुवाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स उक्क०-अणुक्क०-जहण्णद्विदिसंकमो किं सादिया ४ ? सादी अद्धवो । अज० अणादी धुवो अद्धुओ वा। सोलसक०-णवणोकसायाणमुक्क०-अणुक-जहण्णाणं मिच्छत्तभंगो । अज० चत्तारि भंगा। सम्मत्त०-सम्मामि० उक्कस्साणुक०-जहण्णाजह०संकमा सादि-अधुवा । प्रादेसेण सव्वं सव्वत्थ सादि-अधुवमेव । विशेषार्थ—ोघसे जो सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद कहा है वह मनुष्यत्रिकमें अविकल घट जाता है, इसलिये इनके कथनको ओघके समान कहा है । किन्तु मनुष्यनियोंमें छह नोकषायोंके साथ ही पुरुषवेदकी क्षपणा होती है, अतः इनके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद छह नोकषायोंके समान बतलाया है। नारकियोंमें सब प्रकृतियोंका जो जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छंद बतलाया है वह सामान्य देवोंमें तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें अविकल घट जाता है, इसलिये इनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान बतलाया है। किन्तु भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर नहीं उत्पन्न होते, अतः वहां सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदकी अपेक्षा दूसरी पृथिवी और ज्योतिषियोंकी स्थिति एक सी है, अतः एतद्विषयक ज्योतिषियोंका कथन दूसरी पृथिवीके नारकियोंके समान बतलाया है। यह अवस्था सौधर्म कल्पसे लेकर नौ अवेयक तक बन जाती है, अतः वहां जघन्य स्थितिसंक्रमका भंग भी इसी प्रकार बतलाया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर उत्पन्न होते हैं, अतः यहां सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रमश्रद्धाच्छेद ओघके समान बतलाया है। अनुदिशादिकमें अनन्तानुबन्धी और सम्यक्त्वके सिवा शेष सब कोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण पाई जाती है, अतः यहां सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीके सिवा शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण बतलाया है । तथा यहां कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना भी पाई जाती है, अतः इनका जघन्य स्थितिसंक्रम श्रोधके समान बतलाया है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद घटित कर जान लेना चाहिये। ६६२६. सर्वस्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद, नोसर्वस्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद, उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद, अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद, जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद और अजघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद इनका कथन जैसा स्थितिविभक्तिमें किया है वैसा यहां करना चाहिये । ६६२७. सादि, अनादि, ध्रुव अध्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसंक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है; क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है । अजघन्य स्थितिसंक्रम अनादि, ध्रुव और अध्रव है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्यका भंग मिथ्यात्वके समान है। अजघन्यके चार भंग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रम सादि और अध्रुव है। तथा आदेशकी अपेक्षा सब पद सभी गति मार्गणाओंमें सादि और अध्रुव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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