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________________ गा० ५८] उत्तरपयढिहिदिसंकमे अद्धाच्छेदो ३०५ ६१४. संपहि जहण्णट्ठिदिसंकमद्धाच्छेदपरूवणट्ठमुवरिमसुत्तसंबंधमवलंवेमो'* एत्तो जहएणयं वत्तइस्सामो । ६१५. पइजासुत्तमेदं जहण्णढिदिसंकमद्धाच्छेदपरूवणाविसयं सुगमं। विशेषार्थ-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोडीकोडी सागरप्रमाण होता है, किन्तु इसका संक्रम बन्धावलिके बाद उदयावलिके ऊपरके निषेकोंका ही होता है, अत: इसका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद दो आवलिकम सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाया है। सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होता है, अतः इसका भी उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम पूर्वोक्त कारणसे दो आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण ही कहा है। अब रहे नौ नोकषाय सो इनकी बन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति विविध प्रकारकी बतलाई है । हां क्रमकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है, अतः इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद वीन आवलिकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण जानना चाहिये, क्योंकि जो उत्कृष्ट स्थिति संक्रमसे प्राप्त होती है उसका संक्रमावलिके बाद ही संक्रम होता है। उसमें भी उदयावलिप्रमाण निषेकोंका संक्रम नहीं होता, अतः नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद तीन आवलिकम चालीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होता है यह बात सिद्ध हुई। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद होता है, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके जिस जीवने अन्तर्मुहूर्तमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके समयमें ही मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्तकम उक्त स्थिति सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित हो जाती है और फिर इस स्थितिका संक्रम होने लगता है। तथापि यह संक्रम उदयावलिके ऊपरके निषेकोंका ही होता है। अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण है यह सिद्ध होता है । यतः यह स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद चारों गतियोंमें घटित हो जाता है अतः उसके कथनको ओघके समान जानना चाहिये । किन्तु कुछ मार्गणाएं इसकी अपवाद हैं। बात यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम प्राप्त होती है, क्योंकि इन मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । अतः जो जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्तके भीतर इन दो मार्गणाओंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके यह उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । तथापि ऐसे जीव इनमें अन्तर्मुहूर्त बाद ही उत्पन्न होते हैं, अत: यहां ओघ उत्कृष्ट स्थितिको अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिये । यही कारण है कि इन दो मार्गणाओंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोडी (सागरप्रमाण और शेष पच्चीस प्रकृतियोंका अन्तर्मुहूर्त कम चालीस कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाया है। तथा अनतादिकमें अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण ही उत्कृष्ट स्थिति होती है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेद उक्तप्रमाण वतलाया है। ६१४. अब जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रोंके सम्बन्धका अवलम्ब लेते हैं * इससे आगे जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदको बतलाते हैं। ६६१५. यह प्रतिज्ञा सूत्र है। इसमें जघन्य स्थितिसंक्रमअद्धाच्छेदके कथन करनेकी सूचना की गई है । यह सुगम है। १. श्रा०प्रतौ -मवलंवेयव्वो इति पाठः । ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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