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________________ ३०३ गा०५८] हिदिसंकमे हाणपरूवणा ६६१०. णाणाजीवभंगविचओ भागाभागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो च विहत्तिभंगो । णवरि सव्वत्थ अवत्त० परूवणा जाणिऊण कायव्वा । ६६११. अप्पाबहुगाणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा अवत्त०संका० । असंखे०गुणहाणिसंका० संखे०गुणा। सेसं विहत्तिभंगो। एवं मणुसतिए ३ । सेसं० विहत्तिभंगो । एवं वड्डिपरूवणा गया। 5६१२. एत्थ हाणपरूवणाए सत्तरिसागरोकोडाकोडिं बंधियूण बंधावलियादीदमोकड्डणाए संकमेमाणयस्स तमेगं ट्ठिदिसंकमट्ठाणं । एत्तो समयूण-दुसमयूणादिकमेण अणुक्कस्ससंकमट्ठाणवियप्पा ओयारेयव्वा जाव णिव्वियप्पंतोकोडाकोडि ति। तदो धुवट्ठिदीदो हेट्ठा हदसमुप्पत्तियकम्मालंबणेणोदारेयव्वं जाव बादरेइंदियपजत्तधुवहिदि त्ति । पुणो खवयपाओग्गाणि वि ठाणाणि सागरोवमट्ठिदिसंतकम्मपढमट्ठिदिखंडयप्पहुडि जहासंभवमोयारेयव्याणि जाव सुहुमसांपराइयखवगसमयाहियावलिया त्ति । एदाणि च संकमट्ठाणाणि किंचूण पत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ताणि, उक्कस्सट्ठिदिसंकमादो जाव एइंदियधुवहिदि ति णिरंतर सरूवेण तदुप्पत्तिदंसणादो। तत्तो हेट्ठा खवगपाओग्गद्वाणाणं सांतर-गिरंतरकमेण अंतोमुहत्तमेत्ताणमुप्पत्तिउवलंभादो। ___ एवं मूलपयडिटिदिसंकमो समत्तो । ६६१०. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भाव इनका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां अवक्तव्यपद भी होता है, इसलिये इसका कथन सर्वत्र जान कर करना चाहिये। ६६११. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे असंख्यात गुणहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंका अल्पबहुत्व स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष भंग स्थितिविभक्तिके समान है। इह प्रकार वृद्धि प्ररूपणाका कथन समाप्त हुआ। ६१२. यहाँ स्थान प्ररूपणाका कथन करनेपर जो जीव सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिको बाँधकर बन्धावलिके बाद अपकर्षण करके उसका संक्रमण करता है उसके एक स्थितिसंक्रमस्थान होता है। इसके बाद एक समय कम, दो समय कम आदिके क्रमसे अनुत्कृष्ट संक्रमस्थानोंके विकल्प निर्विकल्प अन्तःकोडाकोडीप्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक अवतरित करने चाहिए। फिर ध्रुवस्थितिसे नीचे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकी ध्रु वस्थितिके प्राप्त होनेतक हतसमुत्पत्तिक कर्मके सहारेसे संक्रमस्थानोंको प्राप्त कर ले आना चाहिये। फिर एक सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्मके प्रथम स्थितिकाण्डकसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकके एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक यथासम्भव क्षपकके योग्य संक्रमस्थान ले आने चाहिये। ये संक्रमस्थान कुछ कम सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमस्थानसे लेकर एकेन्द्रियके योग्य ध्रुवस्थिति तक निरन्तर क्रमसे इन स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । और उससे नीचे क्षपक योग्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थानोंकी सान्तर-निरन्तर क्रमसे उत्पत्ति देखी जाती है। ___ इस प्रकार मूलप्रकृति स्थितिसंक्रम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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