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________________ ३०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६६०९. अंतराणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वविहत्तिभंगो। णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । सव्वणेरइय०सव्वदेवा त्ति विहत्तिभंगो । तिरिक्खाणं पि विहत्तिभंगो। पंचिंदियतिरिक्ख०३ विहत्तिभंगो । णवरि संखे० गुणवड्ढि० जह० एयसमओ, उक्क० पुवकोडिपुधसं । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० असंखे०भागवड्डि-हाणि-संखे०गुणवड्डि-अवढि० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । संखे०भागवड्डि-हाणि-संखे०गुणहाणि० जहण्णुक्क० अंतोमु०। मणुस३ विहत्तिभंगो। णवरि खे० गुणवड्डि० जह० एयसमओ, उक्क० पुवकोडी देसूणा । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक० पुचकोडी देसूणा । एवं जाव० । ६६०६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हे-ओघनिदेश और देशनिर्देश। श्रोधकी अपेक्षा सब पदोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । सव नारकी और सब देवोंमें सब पदोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। तियचोंमें भी सब पदोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सब पदोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणवृद्धिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और अवस्थितपदके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्य त्रिकमें सब पदोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तथा अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसी प्रकार अनाहारक मागंणातक जानना चाहिए। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकमें संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक सय बतलाया है। इसका कारण यह है कि जो एकेन्द्रिय दो विग्रह द्वारा अपने योग्य स्थितिके साथ उक्त जीवों में उत्पन्न होता है वह प्रथम समयमें असंज्ञीके योग्य संख्यातगुणी स्थितिको बढ़ाकर बांधता है, दूसरे समयमें अन्य पदके साथ स्थितिबन्ध करता है और तीसरे समयमें शरीरग्रहणके साथ संज्ञीके योग्य संख्यातगणी स्थिति बढाकर बांधता है। इस प्रकार उसके संख्यातगणवृद्धिके संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। पंचेन्दिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकारसे संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। तथा मनुष्यत्रिकमें भी संख्यातगणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय उक्त प्रकारसे ही प्राप्त होता है। मनष्यत्रिकमें मनुष्य अन्तमुहूर्तके भीतर दो बार उपशमणि पर चढ़ता है उसके प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत पाया जाता है । तथा जो पूर्वकोटिके प्रारम्भमें आठ वर्षका होकर उपशमणि पर चढ़ता है और फिर जो जीवनके अन्तमें उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके प्रवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण पाया जाता है। इस प्रकार अन्तर सम्बन्धी विशेषताओंका निर्देश यहां पर कर दिया है । शेष सब स्थानों में सब पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर स्थिति बिभक्तिमें बतलाये गये वृद्धि अनुयोगद्वारमें प्रतिपादित अन्तरके समान है, अतः यहां हम ने उसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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