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________________ गा० ५८ ] हिदिसकमे वडिकालो ३०१ असंखे०भागहाणि० जह० एयसमओ, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडितिभागेण सादिरेयाणि । अवत्त० जहण्णु० एयसमओ । एवं जाव० । विशेषता है कि इनमें असंख्यातभागहानिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय हे और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है। अबक्तव्यस्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। विशेषार्थ-स्थितिविभक्तिमें सब नारकियोंके असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय, दो वृद्धि और दो हानिथोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय, असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। सब देवों और सामान्य तिर्यञ्चोंमें भी इसी प्रकार जहां जितने पद सम्भव हैं उनका यथायोग्य काल बतलाया है। प्रकृतमें इन मार्गणाओंमें अपने-अपने पदोंका उक्त काल इसी प्रकार बन जाता है। इसीसे यहां इस सब कथनको स्थितिविभक्तिके समान कहा है। इस कालका विशेष खुलासा स्थितिविभक्तिमें किया ही है, अतः वहांसे जान लेना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय दोनों प्रकारसे असंख्यातभागवृद्धिरूप संक्रम सम्भव है, इसीसे इनमें इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है। जो एकेन्द्रिय जीव एक विग्रहसे संज्ञी तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रथम समयमें असंज्ञीके योग्य और शरीरग्रहणके समयमें संज्ञीके योग्य स्थितिबन्ध होता है । अतः पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें संख्यातगुणवृद्धिरूप संक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है। पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें संख्यातभागवृद्धि संक्लेशक्षयसे ही होती है, अतः इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि स्थितिकाण्डकघातको अन्तिम फालिके पतनके समय होता है, अतः इनका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। यह पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें भी बन जाता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें इन दो पदोंके कालको सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है। पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें अपने सम्भव पदोंका जो काल बतलाया है वह पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें भी बन जाता है, अतः इनमें सब पदोंका काल पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके सब पदोंके समान बतलाया है । केवल असंख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्तसे अधिक नहीं होता है, इसलिये यहां इस पदका अन्तमुहूर्त ही काल प्राप्त होता है। कालकी यह व्यवस्था मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भी जाननी चाहिये, क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके कालसे इनके कालमें कोई विशेषता नहीं है। मनुष्यत्रिकमें और सब पदोंके काल तो पंचेन्द्रिय तिर्यश्चके समान बन जाते हैं। किन्तु असंख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जिस मनुष्यने आगामी भवकी मनुष्यायुका बन्ध करने के बाद क्षायिकसम्यग्दर्शनको उत्पन्न कर लिया है उसके पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्यप्रमाण कालतक असंख्यातभागहानि पाई जाती है। इसी से यहां मनुष्यत्रिकमें यह काल उक्तप्रमाण बतलाया है। किन्तु मनुष्यनियोंमें यह काल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य ही पाया जाता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर मनुष्यिनियोंमें उत्पन्न नहीं होते हैं । यह बात भुजगारस्थितिसंक्रममें अल्यतर पदके बतलाये गये कालसे जानी जाती है। मनुष्यत्रिकमें अवक्तव्यपद भी सम्भव है सो उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ओघके समान यहां भी घटित कर लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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