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________________ गा० ५८] विदिसंकमे भुजगारभागाभाग आदिपरूवण। २६७ ५९४. भागाभागो विहत्तिभंगो।णवरि ओघपरूवणाए अवत्तव्वसंका० सव्वजी० केव० भागो ? अणंतिमभागो । मणुस० अवत्त० केव० १ असंखे०भागो । मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु संखे०भागो। ५९५. परिमाणं विहत्तिभंगो। णवरि अवत्तव्वसंकामया कत्तिया ? संखेजा। ६५९६. खेत्तं पोसणं च विहत्तिभंगो। णवरि अवत्तव्वसंकामया० लोगस्स . असंखे०-भागो। ५९७. कालो विहत्तिभंगो । णवरि अवत्त० जह० एयसमओ, उक्क० संखेजा समया। $ ५९८. अंतरं विहत्तिभंगो। णवरि अवत्त० जह० एयस०, उक्क० वासपुधत्तं । ५९९. भावो सव्वत्थ ओदइयो भावो । ६००. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण । ओघेण सव्वत्थोवा अवत्तव्वसंका० । भुज०संका० अणंतगुणा । अवट्ठिदसंका० असंखे०गुणा। अप्पद० ६५६४. भागाभागका कथन स्थितिविभक्तिके समान करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि ओघकी अपेक्षा प्ररूपणा करते समय अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। मनुष्योंमें अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। विशेषार्थ-भुजगार अनुयोगद्वारसम्बन्धी स्थितिविभक्तिमें भुजगार अल्पतर, और अवस्थित कुल तीन पद सम्भव है । किन्तु यहाँ एक अवक्तव्य पद बढ़ जाता है। इसलिये इसकी अपेक्षा जहाँ विशेषता सम्भव थी वह यहाँ बतला दी है । शेष कथन स्थितिविभक्तिके समान है। ६५६५. परिमाणका कथन स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। ६५६६. क्षेत्र और स्पर्शनका कथन स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यस्थितिके संक्रामकोका क्षेत्र और स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ५६७. कालका कथन स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थिति के संक्रामोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । उपशमश्रेणि पर निरन्तर चढ़नेका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय होनेसे उतरते समय यह काल प्राप्त होता है। ६५६८. अन्तरका कथन स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व होनेसे जघन्य और उत्कृष्ट उक्त अन्तर प्राप्त होता है। ६५६६. भाव सर्वत्र औदयिक है। ६६००. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भुजगारस्थितिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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