SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ संका० संखे०गुणा । मणुस्सेसु सव्वत्थोवा अवत्तव्वसंका० । भुज०संका० असंखे०गुणा । अवट्ठिदसंका० असंखेगुणा। अप्प० संका० संखे०गुणा । एवं मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु । णवरि सव्वत्थ संखेजगुणालावो कायव्यो । सेसं विहत्तिभंगो। एवं भुजगारो समत्तो। ६०१. पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुकित्तणा सामित्तमप्पाबहुजं च । तत्थोघादेससमुक्त्तिणाए विहत्तिभंगो। ६६०२. सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्क० ताव पयदं। दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण । ओघेण उक्कस्सिया वड्डी विहत्तिभंगो । णवरि उक्कस्सहिदि बंधियूणावलियादीदस्स । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । उक्कस्सिया हाणी विहत्तिभंगो। एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख०-पंचिं०तिरिक्खतिय३-मणुसतिय३-देवा जाव सहस्सार त्ति । पंचिंतिरि०अपज ०-मणुसअपञ्ज० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स तप्पाओग्गजहण्णट्ठिदिसंका० तप्पाओग्गुक्कस्सट्ठिदि बंधियूणावलियादीदस्स । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । हाणी विहत्तिभंगो। आणदादि सव्वट्ठा त्ति विहत्तिभंगो। एवं जाव० । संक्रामक जीव अनन्तगुणे है। उनसे अवस्थितस्थितिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थितिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्योंमें अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भुजगारस्थितिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितस्थितिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थितिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इन दो मार्गणाओंमें सर्वत्र संख्यातगुणा करना चाहिये । शेष कथन स्थितिविभक्तिके समान है। इस प्रकार भुजगार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६६०१. पदनिक्षेपके विषयमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। इनमेंसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा समुत्कीर्तनाका कथन स्थितिविभक्तिके समान है। ६६०२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । सर्वप्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धिका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके जिसे एक श्रावलि काल हो गया है उसके यह उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके तदनन्दर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानिका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका संक्रम कर रहा है। फिर जिसने तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके एक आवलि काल बिता दिया है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। फिर तदनन्तर समयमें उसीके उत्कृष्ट अवस्थान होता है। तथा उत्कृष्ट हानिका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy