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________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पंधगो ६ ओघेण भुज०-अप्प०-अवढि०संकामया णियमा अस्थि । सिया एदे च अवत्तव्वओ च १। सिया एदे च अवत्तव्वया च २। धुवसहिदा तिण्णि भंगा३। मणुसतिए अप्प०-अवढि० णियमा अत्थि, सेसपदा भयणिज्जा । भंगा णव ९। ५९३. आदेसेण णेरइय० अप्प०-अवढि०संका० णियमा अस्थि । भुज०संका० भजियव्वा । भंगा ३ । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देवा जाव सहस्सार त्ति । तिरिक्खेसु भुज०-अप्प०-अवद्विदसंकामया णियमा अस्थि । मणुसअपज० सव्वपदा भयणिज्जा । भंगा छव्वीस २६ । आणदादि जाव सव्वट्ठा त्ति अप्पद०संका० णियमा अस्थि । एवं जाव० । और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामक जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये बहुत जीव हैं और एक जीव अवक्तव्यस्थितिका संक्रामक है । कदाचित् ये बहुत जीव हैं और बहुत जीव अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक हैं । इन दो भंगोंमें ध्रुवपदके मिला देने पर तीन भंग होते हैं। मनुष्यत्रिकमें अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामक जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं । भंग ६ होते हैं। विशेषार्थ-भुजगार आदि कुल चार पद हैं। जिनमें से ओघकी अपेक्षा तीन पदबाले जीव तो नियमसे पाये जाते हैं किन्तु अवक्तव्य पदवाले जीव भजनीय हैं । इस पदकी अपेक्षा कदाचित् एक और कदाचित् नाना जीव होते हैं, इसलिये दो भंग तो ये हुए और इनमें एक ध्रुव भंगके मिलाने पर तीन भंग होते हैं । किन्तु मनुष्यत्रिकमें अल्पतर और अवस्थित ऐसे दो पदवाले जीव तो सदा पाये जाते हैं, किन्तु शेष दो पदवाले जीव भजनीय हैं। अतः यहाँ एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा एकसंयोगी और द्विसंयोगी कुल भंगोंका विचार करने पर ध्रुव पदके साथ कुल नौ भंग होते हैं। ६५६३. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामक जीव नियमसे हैं। भुजगारस्थितिके संक्रामक जीव भजनीय हैं। भंग तीन होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तियेंच, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिये । तिर्यञ्चोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामक जीव नियमसे हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पद भजनीय हैं। भंग २६ होते हैं। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतरस्थितिके संक्रामक जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-नारकियोंमें कुल तीन पद हैं जिनमेंसे दो ध्रुव हैं और एक भजनीय है, अतः यहां तीन भंग कहे हैं। सब नारकी आदि और जितनी मार्गणाऐं मूलमें बतलाई हैं उनमें भी यही बात जाननी चाहिये । सामान्य तिर्यञ्चोंमें तीनों पद ध्रुव हैं, अतः वहाँ एक ही भंग है। मनुष्य अपर्याप्तकों में तीन पद होते हैं पर वे तीनों ही भजनीय हैं, अतः वहाँ एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षासे एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंग प्राप्त करने पर वे २६ होते हैं। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक एक अल्पतरपद ही पाया जाता है, अतः वहाँ इसकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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