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________________ गा०५८] हिदिसंकमे भुजगारअंतरं २६५ ६५९१. अंतराणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०-अप्प०अवढि० विहत्तिभंगो। अवत्तव्व० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० किंचूणदोपुधकोडीहि सादिरेयाणि । सेसमग्गणासु विहत्तिभंगो। णवरि मणुसतिय० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । ६५९२. गाणाजीव० भंगविचयाणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । विशेषार्थ-सामान्यसे देवों, व्यन्तरों और भवनवासियोंमें असंज्ञी जीव मर कर उत्पन्न होते हैं, इसलिये इनमें भुजगारस्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट काल तीन समय बन जाता है । तथा भवनवासी और व्यन्तरोंमें अल्पतरस्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहते समय उसे अन्तर्मुहूर्त कम कहना चाहिये । शेष कथन सुगम है। ६५६१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओषकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामकोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। अवक्तव्यस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। शेष मार्गणाओंमें भुजगारस्थिति आदिके संक्रामकोंका अन्तर स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें अवक्तव्यस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। विशेषार्थ-स्थितिविभक्तिमें भुजगार और अवस्थितस्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य और अन्तमुहूर्त अधिक एक सौ बेसठ सागर बतलाया है। तथा अल्पतरस्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त बतलाया है। यहाँ भी यह इसी प्रकारसे प्राप्त होता है, इसलिये इस कथनको स्थितिविभक्तिके समान कहा है । जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव अन्तमुहूर्त कालके भीतर दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके अवक्तव्य स्थितिक संक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। तथा एक पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस मनुष्यने आठ वर्षका होनेपर क्षायिक सम्यक्त्व पूर्वक उपशमश्रेणिको प्राप्त किया है। फिर जो मर कर तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है। फिर वहाँसे आकर जो एक पूर्वकोटिकी आयुके साथ मनुष्य हुआ है और आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर जो पुनः उपशमश्रेणि पर चढ़ा है उसके अवक्तव्य स्थितिके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर पाया जाता है। इसीसे प्रकृतमें प्रवक्तव्यस्थितिके संक्रामकका जघन्यअन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर कहा है। अब रही नरकगति आदि चार गतिमार्गणाएँ सो इनमें सब अन्तरकाल स्थितिविभक्तिके अन्तर कालके समान बन जाता है, अतः इस अन्तरको स्थितिविभक्तिके समान कहा है। किन्तु यहाँ मनुष्यत्रिकमें अवक्तव्यस्थितिसंक्रम भी सम्भव है इतना विशेष जानना चाहिये। अब यदि मनुष्यत्रिकमेंसे किसी एक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवको अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़ाया जाता है तो यह अन्तर प्राप्त होता है और यदि भवके प्रारम्भमें आठ वर्षका होने पर और भवके अन्तमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर उपशमश्रेणि पर चढ़ाया जाता है तो यह अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ अवक्तव्यस्थितिके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण बतलाया है। ६५६२, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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