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________________ २६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ५८९. मणुसतिय०३ भुज० जह० एयस०, उक्क० चत्तारि समया। अप्पद०' जह० एयस०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागब्भहियाणि । मणुसिणीसु अंतोमुहुत्ताहियाणि । अबढिदमोघभंगो । अवत्तव्वं जहण्णु० एयसमओ। ५९०. देवेसु भुज० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि समया । अप्पद०-अवट्ठि० विहत्तिभंगो । एवं भवण०-वाणवेत्तर० । णवरि सगहिदी। जोदिसियादि जाव सव्वट्ठा त्ति विहत्तिभंगो । एवं जाव० । जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ओघमें जिस प्रकारसे बतलाया है उसी प्रकार यहाँ भी प्राप्त होता है। इसीसे इस कथनको ओघके समान कहा है। अब रहा अल्पतरस्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल सो इसके जघन्य काल एक समयका ज्ञान करना तो सरल है। किन्तु उत्कृष्ट काल उस तिर्यञ्चके प्राप्त होता है जो पूर्व पर्याय में अन्तर्मुहूर्तकाल तक अल्पतरस्थितिका संक्रम करके तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हो जाता है । इसीसे यहाँ अल्पतर स्थितिके संक्रामकका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य बतलाया है। यह पूर्वोक्त काल पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें अच्छी तरहसे घट जाता है, इसलिये इनमें भुजगार स्थिति आदिके संक्रामकोंका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान बतलाया है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त इनमें भुजगार स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय तथा अवस्थितस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पूर्ववत् ही है । अब रहा अल्पतरस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल सो इनके जघन्य कालमें कोई विशेषता नहीं है । इसे भी पहलेके समान जानना चाहिये । हाँ उत्कृष्ट काल जो अन्तमुहूर्त कहा है सो यह उनकी आयुके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा है। ५८६. मनुष्यत्रिकमें भुजगारस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अल्पतरस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्य है । किन्तु मनुष्यनियोंमें यह उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। अवस्थितका काल ओघके समान है । तथा अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें जिसने त्रिभागमें मनुष्यायुका बन्ध करके क्षायिकसम्यग्दर्शन उपार्जित किया है उसीके अल्पतरस्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्य पाया जाता है । इसीसे प्रकृतमें इस कालको उक्त प्रमाण बतलाया है। किन्तु मनुष्यनीके यह काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य ही पाया जाता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर मनुष्यिनियोंमें नहीं उत्पन्न होता है। शेष कथन सुगम है, क्योंकि शेष कालोंका खुलासा अनेक बार किया जा चुका है । उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये। ५६०. देवोंमें भुजगारस्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। तथा अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामकोंका काल स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार भवनवासी औ व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतरस्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भुजगारस्थिति आदिके संक्रामकोंका काल स्थितिविभक्तिके समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । २. श्रा०प्रतौ अपज० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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