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________________ गी० ५८] हिदिसंकमे भुजगारकालो २६३ अप्पद० ज० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवट्ठिदकालो ओघभंगो। एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा त्ति विहत्तिभंगो। ५८८. तिरिक्खेसु भुज० जह० एयसमओ, उक्क० चत्तारि समया। अवढि० ओघं । अप०' जह० एयस०: उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि अंतोमुहत्ताहियाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । पचिंतिरि०अपज०-मणुसअपज० भुज० जह० एयस०, उक्क० चत्तारि समया । अप्पद०-अवट्टि० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अल्पतर स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अवस्थितका काल ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भुजगार आदिका काल स्थितिविभक्तिके भुजगार आदिके समान है । विशेषार्थ_जो असंज्ञी जीव दो विग्रहसे नरकमें उत्पन्न होता है उसके यदि दूसरे समयमें श्रद्धाक्षयसे, तीसरे समयमें शरीरको ग्रहण करनेसे और चौथे समयमें संक्लेशक्षयसे भुजगार स्थितिबन्ध होता है तो उसके भुजगारस्थितिके तीन समय पाये जानेके कारण भुजगारस्थितिसंक्रमके भी तीन समय पाये जाते हैं। इसीसे नरकमें भुजगार स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल तीन समय बतलाया है । अथवा अद्धालय और संक्लेशक्षयसे स्थिति बढ़ाकर बाँधनेशले नारकीके दो भुजगार समय होते हैं ऐसा भी उच्चारणाका पाठ है । पर उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है। जिस जीवने नरकमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तके भीतर सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है और अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर जो मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया है उसके नरकमें अल्पतरस्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। पहले नरकमें यह ओघ व्यवस्था बन जाती है, अतः वहाँके कथनको ओषके समान कहा है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ अल्पतरस्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागरप्रमाण ही कहना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक भुजगार स्थितिविभक्ति आदिके कथनसे भुजगारस्थितिसंक्रम आदिके कथनमें कोई अन्तर नहीं है, इसलिये भुजगारस्थितिसंक्रम आदिका काल भुजगारस्थितिविभक्ति आदिके काल के समान बतलाया है । शेष कथन सुगम है । $ ५८२. तिर्यञ्चोंमें भुजगारस्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अवस्थितस्थितिसंक्रमका काल ओघके समान है। अल्पतरस्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकमें। भुजगारस्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अल्पतर और अवस्थितस्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें भुजगारस्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय जिस प्रकार ओघप्ररूपणामें घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अवस्थितस्थितिके संक्रामकका १. ता०-प्रा०प्रत्योः अपज० इति पाठः। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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