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________________ २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ५७८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह• हिदिसंका० अंतरं जह० एयसमो, उक्क० छम्मासं । अज० पत्थि अंतरं । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणीसु वासपुधत्तं । आदेसेण सव्वत्थ उक्क०भंगो । णवरि तिरिक्खोघे जह० अज० णत्थि अंतरं । एवं जाव० । ५७९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो। ५८०. अप्पाबहुअं दुविहं--विदि-जीवप्पाबहुअभेदेण । विदिअप्पाबहुअं दुविहं जहण्णुकस्सट्ठिदिसंतकम्मविसयभेदेण । तत्थुक्कस्से ताव पयदं । दुविहो णिद्दे सो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण उक्कस्सद्विदिसंकमो थोवो। जट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ । प्रमाण है । इसीसे यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार यथायोग्य अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये। ५७८ जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। आदेशकी अपेक्षा सर्वत्र उत्कृष्टके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सामान्य तिर्यञ्चोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिका संक्रम क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होता है और क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसीसे यहाँ जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना बतलाया है । ओघसे अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर नहीं है यह स्पष्ट ही है । यतः क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति मनुष्यत्रिकमें सम्भव है, अतः यहाँ भी यह अन्तर ओघके समान बतलाया है। किन्तु मनुष्यिनीके क्षपकणिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व पाया जाता है, अतः इस मार्गणामें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण बतलाया है। तथा आदेशको अपेक्षा सर्वत्र जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरके समान पाया जाता है, इसलिये इस कथनको उत्कृष्टके समान कहा है। किन्तु सामान्य तिर्यश्चोंमें जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारकी स्थितिके संक्रामक जीव सदा पाये जाते हैं, अतः इनका अन्तरकाल नहीं है यह बतलाया है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य अन्तर काल घटित कर लेना चाहिये । $५७६. भाव सर्वत्र औदयिक है। ६५८०. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-स्थितिअल्पबहुत्व और जीवअल्पबहुत्व । स्थिति अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य स्थितिसत्कर्मविषयक और उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मविषयक । इनमेंसे सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम थोड़ा है । यत्स्थिति संक्रम विशेष अधिक है। १. ता-या प्रत्योः जहएणहिदिसंकमो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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