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________________ गा० ५८ ] द्विदिकमे अंतरं २८७ $ ५७६. तिरिक्खेसु जह० अज० सव्वद्धा । मणुसअपज० जह० जह० एयस ०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अज० जह० आवलिया समयूणा, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । एवं जाव । -- ०५७७. अंतरं दुविहं – जह० उक्क० । उक्कस्सए ताव पयदं । दुविहो णिसो ओघासभेदेण । तत्थोघेण मोह० उक० ट्ठिदिसंक० अंतरं केव० ? जह० एयस०, उक० अंगुलस्स असंखे ० भागो असंखेजाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ । अणु० णत्थि अंतरं । एवं चदुसु वि गदीसु । णवरि मणुसअपज० अणु० जह० एयस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो । एवं जाव० । यहाँ जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे उक्तप्रमाण कहा है। इन सब मार्गणाओं में अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका काल ओघके समान सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । $ ५७६. तिर्यञ्चों में जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका काल सर्वदा है । मनुष्य अपर्याप्तकों में जवन्य स्थिति के संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रभाग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थतिर्यों में एकेन्द्रियों की प्रधानता है और इनमें जघन्य तथा अजघन्य स्थिति के संक्रामक जीव सदा पाये जाते हैं । इसीसे इनमें जघन्य तथा अजघन्य स्थिति के संक्रामकका काल सर्वदा कहा है । पहले मनुष्य अपर्यातकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य "और उत्कृष्ट काल घटित करके बतला आये हैं । उसी प्रकार यहाँ जघन्य और अजघन्य स्थिति के संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है । 1 $ ५७७, अन्तर दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । उनमेंसे श्रोधको अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के संकामकोंका कितना अन्तरकाल है । जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्याता संख्यात पसर्पिणी- उत्सर्पिणी कालप्रमाण है । तथा घसे अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थ महाबन्ध में उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । यतः उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अविनाभावी है, अतः यहाँ मोहनीयके उत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके अंसख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है। तथा यहाँ अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है । यह ओघप्ररूपणा चारों गतियोंमें बन 'जाती हैं, अतः वहाँ इस प्ररूपणाको श्रोघके समान कहा है । किन्तु मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है और इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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