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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ५७५. आदेसेण णेरइय० जह० ट्ठिदिसं० जह० एयसमओ, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अज० ओघो । एवं पढमाए सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देव०-भवण०वाणतर ति । सत्तमाए जह० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अज० ओघो। लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी और ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव जो ये मार्गणाएं गिनाई हैं सो इनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका काल ओघके समान बन जाता है । इसके कारण भिन्न भिन्न हैं। मनुष्यत्रिकका कारण तो ओघके समान ही है, क्योंकि क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति मनुष्यत्रिकके ही होती है। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियों में और ज्योतिषी देवोंमें यह कारण है कि जो उत्कृष्ट आयुके साथ उत्पन्न हों और उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर लें उनके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। ऐसे जीव मर कर मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं अतः उनका प्रमाण संख्यात ही होगा । यही कारण है कि इन मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बतलाया है। सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उन्हीं के भवके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिसक्रम होता है जो पहले मनुष्य पर्यायमें दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़े हों और फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके उत्कृष्ट आयुके साथ उक्त देवोंमें उत्पन्न हुए हों । यतः ये भी मर कर पर्याप्त मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं अतः इनका प्रमाण संख्यात ही प्राप्त होता है । यही कारण है कि इनमें भी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। इन सब मार्गणाओंमें अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। ६५७५. आदेशसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकियोंमें तथा सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य देव, भवनवासी देव और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकों का काल ओघके समान है। विशेषार्थ-नरकमें जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपने योग्य जघन्य स्थितिके साथ उत्पन्न होते हैं उन्हींके जघन्य स्थितिका संक्रम पाया जाता है । इनके वहाँ निरन्तर उत्पन्न होनेका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीसे यहाँ सामान्य नारकियोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। प्रथम नरकके नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य देव, भवनवासी देव और व्यन्तर देव इन मार्गणाओंमें यह काल इसी प्रकार प्राप्त होता है, इसलिये इनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका काल सामान्य नारकियोंके समान कहा है । इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में एकेन्द्रियोंको उत्पन्न कराकर यह काल प्राप्त करना चाहिये । कुछ ऐसे काल हैं जो नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्टरूपसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाये हैं । उदाहरणार्थ सासादनसम्यग्दृष्टिका काल, सम्यग्मिध्यादृष्टिका काल, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनाकाल, मिथ्यात्वको प्राप्त होनेका काल आदि । सातवें नरकमें जघन्य स्थिति उन्हीं जीवोंके होती है जो जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहकर अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए हैं । इनके इस प्रकार मिथ्यात्वको प्राप्त होनेका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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