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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंबगो ६ ९५६८. आदेसेण णेरइय० उक्क० अणुक्क० लोगस्स असंखे० भागो छचोदस० देसूणा । पढमाए खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमिति उक्क० अणुक्क० सगपोसणं । ९ ५६९. तिरिक्खेसु उक्क० लोग० असंखे० भागो छचोदस० देसूणा । अणु० सव्वलोगो । पंचिंदियतिरिक्खतिए ३ मणुसतिए च एवं चैव । णवरि अणु० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । पंचिं० तिरि० अपज० - मणु० अपज्ज० उक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । 1 २५० । संख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । घसे अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन सब लोक है यह स्पष्ट ही है । ९५६८. आदेश से नारकियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रोंका और त्रसनालीके चौदह भाग में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथित्री में स्पर्शन क्षेत्र के समान है । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकका स्पर्शन अपने-अपने नरकके स्पर्शन के समान जानना चाहिये । विशेषार्थ - सामान्यसे नारकियोंका और प्रत्येक नरकके नारकियों का जो स्पर्शन बतलाया है वही यहाँ सामान्य नारकियों में और प्रत्येक नरकके नारकियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक जीवोंकी अपेक्षासे प्राप्त होता है, इसलिये सामान्य नारकियोंका और प्रत्येक नरक के नारकियोंका जिस प्रकार से स्पर्शन घटित करके बतलाया है उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये । $ ५६६. तिर्यों में उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और नालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में और मनुष्यत्रिक में इसी प्रकार स्पर्शन जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ — तिर्यञ्चों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च ही करते हैं और इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः तिर्यश्र्चों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । तथा इनका अतीत कालीन स्पर्शन जो त्रस नालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि ऐसे तिर्योंने मारणान्तिक समुद्धातद्वारा नीचे कुछ कम छह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, क्योंकि जो तिर्यञ्च मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम कर रहे हैं उनका संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च, मनुष्य और नारकियोंमें ही मारणान्तिक समुद्घात करना सम्भव है । मोहनीकी अनुत्कृष्ट स्थितिका संक्रम सब तिर्यञ्चों के सम्भव है और वे सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः मोहनीकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक तिर्यञ्चों का स्पर्शन सब लोकप्रमाण बतलाया है । सामान्य तिर्यों में जो उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका स्पर्शन कहा है वह पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी मुख्यता से ही कहा है । तथा मनुष्यत्रिक में भी यह स्पर्शन इसी प्रकारसे प्राप्त होता है, अत: इन तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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