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________________ २७६ गा०५८] हिदिसंकमे पोसणं १५६६. जह० पयदं । दुविहो जिद्द सो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण उकस्सभंगो। एवं सव्वासु गईसु । णवरि तिरिक्खोघे जह० लोग० संखे०भागो। एवं जाव० । ५६७. पोसणं दुविहं-जहण्णविसयमुक्कस्सविसयं च । उक्कस्से ताव पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क डिदिसंकामएहि केव० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो अट्ठ-तेरहचोदस० देसूणा । अणु० सव्वलोगो। ५६६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है--ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे जघन्यका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब गतियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सामान्य तिर्यञ्चोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामक जीव लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ यहाँ उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें कुछ ही होते हैं। इसलिए उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा शेष सब संसारी जीव अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक होते हैं, अतः उनका क्षेत्र सब लोकप्रमाण बतलाया है। तिर्यञ्चोंमें यह प्ररूपणा ओधके समान बन जाती है, अतः उनके कथनको अोधके समान कहा है। तिर्यञ्चोंके सिवागति मार्गणाके और जितने भेद हैं, सामान्यतः उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे उनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रमकी अपेक्षासे चारों गतियोंमें क्षेत्र घटित कर लेना चाहिये। किन्तु तिर्यञ्चोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये जो बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवोंकी अपेक्षा प्राप्त होता है । ६५६७. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्यस्थितिके संक्रामकोंसे सम्बन्ध रखनेवाला और उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंसे सम्बन्ध रखनेवाला । यहाँ सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और श्रादेशनिर्देश। ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ- यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका जो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन बतलाया है वह वर्तमान कालकी मुख्यतासे बतलाया है, क्योंकि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम सातों नरकोंके नारकी, संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च, पर्याप्त मनुष्य व बारहवें स्वर्गतकके देवोंके ही सम्भव है पर इन सबका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । तथा सनालीके चौदह भागोंमेंसे जो कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण स्पर्शन बतलाया है वह अतीत कालकी अपेक्षासे बतलाया है, क्योंकि विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदसे परिणत हुये मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक जीवोंने वसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और मारणान्तिक समुद्घातसे परिणत हुए मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । यहाँ तैजस, आहारक और उपपाद ये तीन पद सम्भव नहीं। यद्यपि स्वस्थानस्वस्थान पद होता है। पर इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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