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गा० ५८] हिदिसंकमे एयजीयेण अंतरं
२७३ ६५५६. देवगदीए देवेसु उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारससागरो० सादिरेयाणि । अणु० ओघमंगो। भवणादि जाव सहस्सारे त्ति उक्क० द्विदिसं० जह० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी देसूणा । अणु० ओघो । एवं जाव० ।
६५५७. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण जह० द्विदिसं० णत्थि अंतरं । अज० ज० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं, उवसमसेढीए तदुवलद्धीदो। एवं मणुसतिय०३ । णवरि अज० अंतरं जहण्णु० अंतोमु० ।
___५५८. आदेसेण णेरइय० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक० एयसमओ । स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। मनुष्यत्रिकमें भी अनुत्कृष्टस्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका प्राप्त होना या उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका अन्तर देकर दो बार अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका प्राप्त होना सम्भव नहीं है। इसीसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमके अन्तरका निषेध किया है। यही बात आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक जाननी चाहिये। इसीसे वहाँ भी उक्त दो प्रकारके स्थितिसंक्रमोंके अन्तरका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है।
६५५६. देवगतिमें देवोंमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका अन्तर ओघके समान है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-देवोंमें ओघ उत्कृष्ट स्थिति सहस्रार कल्प तक पाई जाती है। इसीसे यहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६ ५५ . जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे जघन्य स्थितिसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इसकी उपलब्धि उपशमश्रेणिमें होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होता है। किन्तु एक जीवके क्षपकश्रेणिका दो बार प्राप्त होना सम्भव नहीं है। इसीसे यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमके अन्तरका निषेध किया है। जो जीव उपशमश्रेणिमें एक समय तक मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका असंक्रामक होता है और दूसरे समयमें मर कर देव हो जाता है उसके मोहनीयकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। तथा उपशान्तमोहका काल अन्तर्मुहूर्त होनेके कारण अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। यह ओघनरूपणा मनुष्यत्रिकमें घटित हो जाती है, इसलिये मनुष्यत्रिकमें इस कथनको ओघके समान कहा है। किन्तु मनुष्यत्रिकमें अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं घटित होता, क्योंकि ओघसे एक समय अन्तर दो गतियोंकी अपेक्षासे प्राप्त होता है। इसलिये यहाँ उत्कृष्ट अन्तरके समान जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये।
६५५८. आदेशसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिसंक्रमका अन्तर नहीं है। अजघन्य स्थिति
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