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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ५५३. अंतरं दुविहं जहण्णुकस्सभेएण । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० द्विदिसं० अंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणु० ज० एयस०, उक्क० अंतोमु० ।। ६५५४. आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणु० ओघं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगढिदी देसूणा । ५५५. तिरिक्खेसु ओघभंगो । पंचिंतिरिक्खतिय३ उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणु० ओघो। एवं मणुस०३ । पंचिंतिरि०अपज०-मणुसअपज्ज० उक० अणु० णस्थि अंतरं । एवमाणदादि जाव सवढे त्ति । १५५३. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। इसीसे उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। एकेन्द्रियादि पर्यायमें रहकर यह जीव अनन्त काल तक अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता रहता है जिससे इसे इतने काल तक उत्कृष्ट स्थितिकी प्राप्ति नहीं होती। इसीसे यहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त कालप्रमाण कहा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीसे यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण कहा है । ५५४. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तथा अनुत्कृष्टका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होनेसे उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । जिस नारकीने आयुके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम किया है और मध्यमें जो अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम करता रहा उसके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण पाया जाता है। इसीसे यहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीसे यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त ओघके समान कहा है। शेष कथन सुगम है। ५५५. तिर्यञ्चोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका अन्तर ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्टका अन्तर ओघके समान है। मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार जानना चाहिये। तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जोवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक भी इसी प्रकार जानना चाहिये। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। किन्तु भोगभूमिमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना सम्भव नहीं है इसी से यहाँ उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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