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________________ गा० ५८] हिदिसंकमे एयजीवेण कालो २७१ ५५२. मणुसतिए जह० ओघभंगो। अज० जह० एयस०, उक्क. सगढिदी । कथमेयसमयोवलद्धी ? ण, असंकमादो अजहण्णसंकमे पडिय तत्थेयसमयमच्छिय विदिसमए कालगदस्स तदुवलंभादो । देवेसु णारयभंगो। एवं भवण०-वाण० । णवरि सगद्विदी। जोदिसियादि जाव सव्वढे त्ति हिदिविहत्तिभंगो । एवं जाव० । समयसे लेकर एक श्रावलिके अन्तमें एक समयके लिये जघन्य स्थितिसंक्रम देखा जाता है। इसीसे पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसी जीवके जघन्य स्थितिसंक्रमके प्राप्त होनेके पूर्व एक समय कम एक आवलि काल तक अजघन्य स्थितिसंक्रम होता रहता है। इसीसे यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण कहा है। इनमें अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंके भी जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम एक अवलिप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान घटित कर लेना चाहिये। तथा यहाँ जो अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्तप्रमाण कहा है सो यह इन जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थितिकी अपेक्षासे कहा है ऐसा जानना चाहिये। ५५२. मनुष्यत्रिकमें जघन्य स्थितिसंक्रमका काल ओघके समान है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। शंका-यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कैसे उपलब्ध होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि जो असंक्रमसे अजघन्य स्थितिसंक्रमको प्राप्त होकर और एक समय वहाँ रह कर दूसरे समयमें मर गया है उसके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। देवोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रमका काल नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तरोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । तथा ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिसंकमका भंग जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयप्रमाण सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमें प्राप्त होता है जिसका प्राप्त होना मनुष्यत्रिकके ही सम्मव है। इसीसे यहाँ मोहनीयके जघन्य स्थितिसंक्रमकां जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा है। यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय क्यों है इसका खुलासा मूलमें किया ही है। तथा अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर इन तीन प्रकारके देवों में असंज्ञी जीव मर कर उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये इनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रमका काल नारकियोंके समान बन जाता है। किन्तु इनकी भवस्थिति जुदी जुदी होनेसे यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। अब रहे ज्योतिषी और सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव सो इनमें जिस प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिका काल बतलाया है उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रमका भी काल घटित कर लेना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । यही कारण है कि यहाँ जघन्य और अजजन्य स्थितिसंक्रमका काल जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति के कालके समान कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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