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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ अज० ज० एयस०, $ ५५१. तिरिक्खेसु मोह० जह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । उक्क० असंखेजा लोगा । पंचिं० तिरि०तिय३ जह० द्विदि० संक० जह० उक्क० एयस० । अज० जह० आवलिया समयूणा, उक्क० सगट्टिदी | पंचिंदि० तिरि० अपज०मणुस अपज्ज० जह० ट्ठिदिसं जह० उक्क० एयस० । अज० जहण्णेणावलिया समयूणा, उक्क० अंतोमु० । २७० अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर ली है उसके नरकायुके अन्तिम समय में जघन्य स्थितिक्रमप्राप्त होता है। इसीसे यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है | यहाँ अन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल वहांकी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह बात स्पष्ट ही है । सातवीं पृथिवीमें भी जो जीवन भर सम्यक्त्वके साथ रहा है । किन्तु अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है। ऐसा जीव यदि सत्कर्मस्थितिके समान एक समय के लिये स्थितिबन्ध करता है तो इसके जघन्य स्थितिसंक्रम एक समय तक होता है और यदि सत्कर्मस्थितिके समान अन्तर्मुहूर्ततक स्थितिबन्ध करता है तो इसके जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहूर्ततक होता है । इसीसे यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। किन्तु इसी जीवके बाद में अन्तर्मुहूर्त काल तक अजघन्य स्थितिसंक्रम होता है । इसीसे यहाँ अजवन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । $ ५५१. तिचों में मोहनीयके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तं है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक में जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समयकम एक अवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — जो एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक क्रियाको करके स्थितिसत्कर्मके समान एक समयके लिये स्थितिका बन्ध करता है उसके एक समय तक जघन्य स्थितिसंक्रम होता है । तथा जो अन्तर्मुहूर्त तक स्थितिसत्कर्म के समान स्थितिबन्ध करता है उसके अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य स्थितिसंक्रम होता है । यही कारण है कि तिर्यंचों में जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । जो तिर्येच जघन्य स्थितिसंक्रमको करके एक समय तक अजघन्य स्थितिसंक्रमको प्राप्त होता है और दूसरे समय में मर कर अन्य गतिमें चला जाता है। उसके जघन्य स्थितिसंक्रम एक समय तक देखा जाता है । इसीसे यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कहा है । ऐसा नियम है कि एकेन्द्रियोंमें जघन्य स्थिति बादर जीवों के ही प्राप्त होती है, सूक्ष्म जीवोंके नहीं । सूक्ष्म जीवोंके तो निरन्तर अजघन्य स्थिति ही पाई जाती है । और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याय में निरन्तर रहनेका काल असंख्यात लोकप्रमाण है। इस से यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। जो एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक क्रियाको करके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में उत्पन्न होता है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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