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________________ गा० ५८ ] हिदिक एयजीवेण कालो २६६ $ ५५०. आदेसेण णेरइय० मोह० जह० द्विदि० जह० उक्क० एयसमत्रो । अज० जह० समयाहियावलिया, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए । णवरि सदी | विदयादि जाव सत्तमिति जह० जहण्णुक० एयसमओ । अज० जह० जहणट्ठिदी, उक्क उकसहिदी । णवरि सत्तमीए जह० जहण्णेणेयसमओ, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० सगट्टिदी | यह सादि-सान्त विकल्प जघन्य और उत्कृष्टके भेद से दो प्रकारका है । इनमेंसे जघन्य विकल्प उन जीवों होता है जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त के भीतर दो बार श्रेणि पर चढ़े हैं । इसीसे सादि-सान्त विकल्पका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा सादि-सान्त विकल्पका जो उत्कृष्ट भेद है सो उसका काल जो कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर कहा है सो वह क्षायिक सम्यग्दर्शन के उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा है । यहाँ क्षायिक सम्यग्दर्शनके उत्कृष्ट कालके प्रारम्भ में उपशमश्रेणि पर चढ़ा कर व उतरते समय अजघन्य स्थितिसंक्रमका प्रारम्भ करावे तथा उसके अन्तमें क्षपकश्रेणि पर चढ़ा कर अजघन्य स्थितिसंक्रमका अन्त करावे । इस प्रकार अजघन्य स्थितिसंक्रमका उक्तप्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है । ६५५०. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में है । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ अन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जवन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है तथा अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ — सामान्य से नरक में मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम एक समय तक ही होता है, क्योंकि जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव नरकमें उत्पन्न होता है उसके शरीर ग्रहणके बाद एक आवली कालके अन्तिम समय में यह जघन्य संक्रम देखा जाता है । इसीसे यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल जो एक समय अधिक एक आवलि कहा है सो यह काल भी उस नारकीके प्राप्त होता है जो असंज्ञी पर्यायसे आकर नरक में उत्पन्न हुआ है। ऐसे जीवके नरक में उत्पन्न होने के समय से लेकर एक समय अधिक एक आवलि काल तक अजघन्य स्थितिसंक्रम बना रहता है और इसके बाद यह नियम से एक समय के लिये जघन्य स्थितिसंक्रमको प्राप्त हो जाता है । इसीसे यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण कहा है। तथा अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षासे कहा है, क्यों कि इतने काल तक नारकी के अजघन्य स्थिति प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती है । अजघन्य स्थितिसंक्रमके उत्कृष्ट कालके सिवा शेष सब काल प्रथम नरक में घटित होते हैं, इसलिये प्रथम नरकमें उक्त कालोंको सामान्य नारकियों के समान कहा है । किन्तु प्रथम नरककी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरप्रमाण होनेके कारण यहां अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल एक सागर ही प्राप्त होता है । दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जो जीव उत्कृष्ट के साथ वहाँ उत्पन्न हुआ है । फिर अन्तर्मुहूर्त में जिसने उपशमसम्यक्त्वपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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