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________________ २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ५४९. जहण्णे पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० द्विदिसंक० केव० । जहण्णुक० एयसमओ। अज० तिण्णि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणदोपुन्चकोडीहि सादिरेयाणि । है। जो नारकी मरनेके पूर्व समयमें उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करके अन्तिम समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करता है उसके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा जो नारकी तेतीस सागर काल तक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध न करके अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता रहता है उसके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर पाया जाता है । इसीसे यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरप्रमाण कहा है। आगे सब नरकोंके नारकी आदि और जितनी मार्गणाओंका निर्देश किया है उनमें और सब काल तो पूर्ववत् घटित हो जाता है किन्तु अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल जुदा-जुदा प्राप्त होता है, क्योंकि इन मार्गणाओंका अवस्थान काल भिन्न-भिन्न प्रकारका है। इसीलिये इन मार्गणाओं में इस अपवादके साथ शेष कथनका निर्देश सामान्य नारकियोंके समान किया है। पंचेन्द्रिय तियच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त इन दो मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम उन जीवोंके होता है जो अन्य गतिमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त बाद इन मार्गणाओंमें उत्पन्न हुए हैं। यतः इनके उत्कृष्ट स्थिति एक समय तक ही पाई जा सकती है, अतः इनके उत्कृष्ट स्थिति संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इन मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थिति कमसे कम एक समय कम खुदाभवग्रहणप्रमाण और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाई जाती है, अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। आनतादिकमें भी उत्कृष्ट स्थिति एक समय तक और अनुत्कृष्ट स्थिति कमसे कम एक समय कम अपनी-अपनी जघन्य आयु तक और अधिकसे अधिक उत्कृष्ट आयु तक पाई जा सकती है । इसीसे इन मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्तप्रमाण कहा है । आगेकी मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार यथायोग्य कालका विचार कर लेना चाहिये। ६५४६. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयके जघन्य स्थितिसंक्रमका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिसंक्रमके तीन भंग हैं। उनमें जो सादि-सान्त भंग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। विशेषार्थ-क्षपक जीवके सूक्ष्म लोभका सत्त्व एक समय अधिक एक श्रावलि प्रमाण रह जाने पर उसका अपकर्षण एक समय तक ही होता है इसीसे मोहनीयके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अजघन्य स्थितिसंक्रमके अनादि-अनन्त, अनादिसान्त और सादि-सान्त ये तीन विकल्प होते हैं। पहिला विकल्प अभव्योंके होता है, क्योंकि उन्हें जघन्य स्थितिसंक्रमकी प्राप्ति कभी भी सम्भव नहीं है । दूसरा विकल्प भव्योंके होता है, क्योंकि उनके अनादि कालसे यद्यपि अजघन्य स्थितिसंक्रमका क्रम चला आ रहा है पर कालान्तरमें उसका अन्त देखा जाता है। तीसरा विकल्प उन क्षायिक सम्यग्दृष्टि भव्योंके होता है जिन्होंने उपशमश्रेणि पर चढ़ असंक्रामक होकर उतरते हुए सूक्ष्मलोभ गुणस्थानमें इसका प्रारम्भ किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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