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________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ एवं पढमाए सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देवा भवण०-चाणवेंतरे त्ति । विदियादि जाव छट्टि त्ति जहण्णाजह० णत्थि अंतरं । जोदिसियादि जाव सव्वट्ठा त्ति एवं चेव । सत्तमाए जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु जह० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेजा लोगा। अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवं जाव० । संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सब पंचेन्द्रिय तियञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रमका अन्तर नहीं है । ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। सातवीं पृथिवीमें जघन्य स्थितिसंक्रमका अन्तर नहीं है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-जो असंज्ञी नरकमें उत्पन्न होता है उसीके एक समयके लिये जघन्य स्थितिसंक्रमका प्राप्त होना सम्भव है। इसीसे यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमके अन्तरका निषेध करके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय बतलाया है। प्रथम नरकके नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासी देव और व्यन्तर देव इनमें भी यथासम्भव जो असंज्ञी या एकेन्द्रिय जीव मर कर उत्पन्न होते हैं उन्हींके एक समयके लिये जघन्य स्थिति संक्रमका पाया जाना सम्भव है। इससे यहाँ भी सामान्य नारकियोंके समान जघन्य स्थितिसंक्रमके अन्तरका निषेध करके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय बतलाया है। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके जिन नारकियोंमें जघन्य स्थितिसंक्रम पाया जाता है वह भवके अन्तिम समयमें ही पाया जाता है, इस लिये यहाँ जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारके स्थितिसंक्रमोंके अन्तरका निषेध किया है। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भी जिनके जघन्य स्थितिसंक्रम पाया जाता है वह भवके अन्तिम समयमें ही पाया जाता है, इस लिये इन मार्गणाओंमें भी जघन्य और अजघन्व स्थितिसंक्रमके अन्तरका निषेध किया है । सातवीं पृथिवीमें जिनके जघन्य स्थितिसंक्रम होता है वह आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त तक होता है । इसलिये इनके जघन्य स्थितिसंक्रमके अन्तरका निषेध करके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तिर्यश्चगतिमें अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण बतलाया है। इसीसे इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा तिर्यञ्चगतिमें जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तं बतलाया है । इसीसे यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य अन्तरकाल जान लेना चाहिये। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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