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________________ २६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ सहस्सस्स सत्त-सत्तभागा पलिदो० संखे०भागूणा । एवं पढमपुढवि देव०-भवण०वाणवेंतरा त्ति । विदियादि जाव सत्तमा ति मोह. जह० ट्ठिदिसंक अद्धा० अंतोकोडा० । एवं जोदिसियपहुडि जाव सबट्ठा त्ति । सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज० मोह० जह० द्विदि०अद्धा सागरोवमं पलिदो० असंखे०भागूणयं । एवं जाव० । ५४३. सव्व-णोसब्ब-उक्कस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णढिदिसंकमाणमोघादेसपरूवणाए द्विदिविहत्तिभंगो। ५४४. सादिअणादि-धुवअधुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क०-अणुक०-जह. द्विदिसंकमाए कि सादिया ४ ? सादि-अधुवा । अजहण्णढिदिसं० किं सादि० ४ १ सादी अणादी धुवो अद्धवो वा। आदेसेण सव्वमग्गणासु उक्क०-अणुक०-जह०-अजहण्णसंका० किं सादि० ४ ? सादि-अधुवा । हजार सागरके सात भागोंमें से पल्यका संख्यातवाँ भागकम सात भागप्रमाण है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद अन्तःकोडाकोडीप्रमाण है । इसी प्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिये। सब तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद पल्यका असंख्यातवाँ भाग का एक सागर प्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-आगे जघन्य स्वामित्वका निर्देश किया है । उसे ध्यानमें रखकर यह अद्धाच्छेद घटित कर लेना चाहिये । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ पर उसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है। ६५४३. सर्व, नोसर्व, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन सब स्थितिसंक्रमोंका श्रोध और आदेशकी अपेक्षासे कथन जैसा स्थितिविभक्तिके समय कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिये। ६५४४. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसंक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थितिसंक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। आदेशकी अपेक्षा सब मार्गणाओंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। विशेषार्थ—ओघसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद कदाचित् होते हैं यह स्पष्ट ही है, इसलिए इन्हें सादि और अध्रुव कहा है। किन्तु क्षपकश्रेणिमें जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद होनेके पूर्व अजघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद अनादि कालसे होता आ रहा है, इसलिए तो इसे अनादि कहा है तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशामकके उपशमश्रेणिमें जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद होने के बाद उतरते समय अजघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद सादि होता है, इसलिए इसे सादि कहा है। और भव्योंके यह अध्रुव तथा अभव्योंके ध्रुव होता है, इसलिए इसे ध्रुव और अध्रुव कहा है। इस प्रकार अजघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद चारों प्रकारका बन जाता है यह स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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