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________________ गा० ५८ ] ट्ठिदिसंकमे अद्धाछेदो २६३ अद्धाछेदो जाव अप्पाबहुगे त्ति । तदो भुजगार-पदणिक्खेव-वड्डि-टाणाणि च कायव्वाणि । ६५४१. तत्थ दुविहो अद्धाच्छेदो जहण्णुक्कस्सभेदेण । उक्क० पयदं । दुविहो णिदेसो ओघादेसभेदेण । तत्थोघेण मोह० उक्क द्विदिसंकमद्धाछेदो सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि ऊणियाओ । एवं चदुसु वि गदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० उक्क० द्विदिसंकम० सत्तरिसा०कोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ । आणदादि जाव सव्वट्ठा त्ति मोह० उक्क० ट्ठिदिसं० अंतोकोडाकोडीए । एवं जाव० । ६५४२. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० द्विदिसंक० अद्धाच्छेदो एया द्विदी। सा पुण समयाहियावलियाए उवरिमा होइ । एवं मणुसतिए । आदेसेण णेरइय० मोह. जह• हिदिसं०अद्धा० सागरोवमहोते हैं । फिर भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इनका कथन करना चाहिये। ५४१. प्रकृतमें जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे श्रद्धाछेद दो प्रकारका है। उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाछेद दो आवलिकम सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण है। इसी प्रकार चारों ही गतियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण है । तथा आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद अन्तःकोडाकोडीप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-तत्काल बँधे हुए कर्मका बन्धावलिके बाद संक्रम होता है। उसमें भी जो कर्म उदयावलिके भीतर अवस्थित है उसका संक्रम नहीं होता, किन्तु उदयावलिके बाहर अवस्थित कर्मका ही संक्रम होता है । इसीसे प्रकृतमें मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद दो आवलिकम सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाया है । यतः मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चारों गतियों में होता है, अतः चारों गतियोंमें यह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद प्राप्त हो जाता है । ऐसा नियम है कि अपर्याप्त अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता । किन्तु जो जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और अन्तर्मुहूर्तके भीतर मर कर अपर्याप्त अवस्था प्राप्त कर लेता है उसके अपर्याप्त अवस्थामें अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थिति अद्धाच्छेद पाया जाता है । इसीसे प्रकृतमें पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण बतलाया है। तथा आनतादिमें उत्कृष्ट स्थिति किसी भी हालतमें अन्तःकोडाकोडीसे अधिक नहीं होती। इसीसे वहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद अन्तःकोडाकोडीप्रमाण बतलाया है। इसी प्रकार आगेकी मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिका विचार करके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद ले आना चाहिये । ६५४२. अब जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद एक स्थितिप्रमाण है। किन्तु वह स्थिति एक समय अधिक एक श्रावलिसे ऊपरकी होती है। इसी प्रकार मनुष्यनिकमें जानना चाहिये । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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