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________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [बंधगो ६ * एवमोकड्डुक्कडणाणमपदं समत्तं । ६५३९. सुगमं । एत्थाबाहापरिहीणुकस्ससंकमे अट्ठपदपरूवणा किण्ण कया ? ण, तत्थोकड्डुक्कड्डणासु व जहण्णुकस्साइच्छावणा-णिक्खेवादिविसेसाणमसंभवेण सुगमत्तबुद्धीए तदपरूवणादो। संपहि एवं परूविदमट्टपदमवलंबणं कऊण द्विदिसंकमं परूवेदुकामो सुत्तमुत्तरमाह ___एत्तो अद्धाछेदो । जहा उक्कस्सियाए हिदीए उदीरणातहा उक्कस्सओ हिदिसंकमो। ६५४०. अप्पणासुत्तमेदं, उक्कस्सद्विदिउदीरणापसिद्धस्स धम्मस्स मूलुत्तरपयडिभेयभिण्णद्विदिसंकमुक्कस्सद्धाच्छेदे समप्पणादो। संपहि उत्तरपयडिविसयमेदमप्पणासुत्त मेवं चेव थप्पं काऊण ताव सुत्तेणेदेण सूचिदं मुलपयडिडिदिसंकमविसयं किंचि परूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा-मूलपयडिट्ठिदिसंकमे तत्थ इमाणि तेवीसमणियोगद्दाराणि भाग अधिकके भीतर होनेके कारण अतिस्थापना एक आवलिसे कम पाई जाती है वहाँ व्याघात विषयक उत्कर्षण होता है और जहां एक प्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके साथ निक्षेप कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागके होने में किसी प्रकारका व्याघात नहीं पाया जाता है वहाँ अव्याघातविषयक अतिस्थापना होती है। अव्याघातविषयक उत्कर्षणमें अतिस्थापना कमसे कम एक आवलिप्रमाण और अधिकसे अधिक उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण होती है। तथा निक्षेप कमसे कम श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और अधिकसे अधिक उत्कृष्ट आबाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण होता है। व्याघातविषयक जघन्य अतिस्थापना कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और अधिकसे अधिक एक समय कम एक आवलिप्रमाण होती है । तथा निक्षेप मात्र आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । * इस प्रकार अपकर्षण और उत्कर्षणका अर्थपद समाप्त हुआ। ६५३६. यह सूत्र सुगम है। शंका-यहाँ पर आबाधासे होन उत्कृष्ट संक्रमके विषयमें अर्थपदका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ पर अपकर्षण और उत्कर्षणके समान जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेप आदि विशेषोंका पाया जाना सम्भव न होनेसे सुगम समझकर उत्कृष्ट संक्रमके विषयमें अर्थपदका कथन नहीं किया। ____ अब इस प्रकार कहे गये अर्थपदका अवलम्बन लेकर स्थितिसंक्रमके कथन करनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं * अब इससे आगे अद्धाछेदका प्रकरण है-जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा होती हे उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम जानना चाहिये । ६५४०. यह अर्पणासूत्र है; क्योंकि इस द्वारा उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणामें प्रसिद्ध हुए धर्मका मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक प्रकारके स्थितिसंक्रमके उत्कृष्ट अद्धच्छेदमें समर्पण किया गया है। अब उत्तरप्रकृतिविषयक इसी प्रकारके इस अर्पणासूत्रको स्थगित करके सर्व प्रथम इस सूत्रके द्वारा सूचित होनेवाले मूलप्रकृतिविषयक स्थितिसंक्रमका कुछ कथन करते हैं। यथा-मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमके विषयमें अद्धछेदसे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेईस अनुयोद्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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