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________________ २६५ गा० ५८ ] द्विदिसंकमे सामित्तं ५४५. सामित्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्स्से पयदं । दुविहो णिदेसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक० डिदिसं० कस्स ? अण्णद० मिच्छा० उक्क हिदि बंधिदणावलियादीदं संकामेमाणस्स । एवं चउगदीसु। णवरि पंचिंतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपञ्ज०-आणदादि जाव सव्वट्ठा त्ति हिदिविहत्तिभंगो । एवं जाव० । ६५४६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० द्विदिसं० कस्स ? खवयस्स समयाहियावलियचरिमसमयसंकामयस्स । एवं मणुसतिए० । आदेसेण णेरइय० मोह० जह० द्विदिसं० कस्स ? अण्णदरस्स असण्णिपच्छायददुसमयाहियावलियतब्भवत्थस्स । एवं पढमाए देव-भवण०-वाण-तरा ति । विदियादि जाव सत्तमा त्ति द्विदिविहत्तिभंगो। णवरि सत्तमाए समद्विदि बंधिदणावलियादीदस्स सामित्तं वत्तव्यं । तिरिक्खेसु विहत्तिभंगो। णवरि समद्विदि बंधितणावलियादीदस्स सामित्तं दादव्वं । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज ० मोह० जह• हिदिसं० कस्स ? अण्णदरस्स हदसमुप्पत्तियं कादणागदबादरेइंदियपच्छायदस्स आवलियउववण्णल्लयस्स । जोदिसियप्पहुडि जाव सव्व? त्ति द्विदिविहत्तिभंगो । एवं जाव० । ६५४५. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जो मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके एक आवलिके बाद उसका संक्रम करता है उसके होता है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट स्थितिसक्रमके स्वामित्वका कथन स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।। ५४६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जो क्षपक एक समय अधिक एक श्रावलिके शेष रहते हुए उसके अन्तिम समयमें मोहनीयका संक्रम कर रहा है उसके जघन्य स्थितिसंक्रम होता है । इसीप्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जिस असंज्ञी पंचेन्द्रियको मर कर नारकियोंमें उत्पन्न हुए दो समय अधिक एक आवलि हुआ है उसके होता है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीके नारकी, देव, भवनवासी देव और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में स्वामित्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें सत्त्वके समान स्थितिबन्ध करनेके बाद जिसे एक श्रावलि काल व्यतीत हुआ है उसके मोहनीयके स्थिति संक्रमका जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये। तिर्यञ्चों में स्वामित्वका भंग स्थितिविभक्ति के समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसे सत्त्वके समान स्थिति बाँधनेके बाद एक वलि काल व्यतीत हुआ है उसे मोहनीयके स्थितिसंक्रमका जघन्य स्वामित्व देना चाहिये । सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जिस बादर एकेन्द्रियको हतसमुत्पत्ति करनेके बाद मर कर उक्त जीवोंमें उत्पन्न हुए एक आवलि काल हुआ है उसके होता है। ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य स्वामित्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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