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________________ गा० ५८ ] द्विदिसंकमे उक्कडुणा રહ ६५३२. जहण्णाइच्छावणाए उवरि पुणो वि आवलि० असंखे० भागमेत्तबंधवुड्डीए जहण्णगिक्खेवसंभवो होइ त्ति भणिदं होइ । संपहि एत्तो प्पहुडि उक्कड्डणासंभवो त्ति पदुप्पाएदुमुत्तरसुत्तावयारो 8 जइ जहरिणयाए अइच्छावणाए जहएणएण च णिक्खेवेण एत्तियमेत्तेण संतकम्मादो अदिरित्तो बंधो सा संतकम्मअग्गद्विदी उक्कड्डिजदि । ५३३. कुदो ? एत्थ जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवाणमविकलसरूवेणोवलंभादो । एत्तो उवरि समयुत्तरादिकमेण जा बंधवुड्डी सा किमइच्छावणाए अंतो णिवदइ आहो णिक्खेवस्से त्ति पुच्छाए उत्तरसुत्तमाह ॐ तदो समयुत्तरे बंधे मिक्खेवो तत्तिो चेव, अइच्छावणा वडदि। ५३४. कुदो एवं ? सव्वत्थ णिक्खेववुड्डीए अइच्छावणाव ड्डिपुरस्सरत्तदंसणादो। सा वुण अइच्छावणावुड्डी उक्कस्सिया केत्तिया त्ति आसंकाए तण्णिण्णयकरणमुत्तरसुत्तं * एवं ताव अइच्छावणा वडइ जाव अइच्छावणा प्रावलिया जादा त्ति। ६५३५. सा जहण्णाइच्छावणा समयुत्तरकमेण बंधवुड्डीए वड्डमाणिया ताव वड्डइ जाव उक्कस्सियाइच्छावणा आवलिया संपुण्णा जादा त्ति सुत्तत्थसंबंधो। एत्तो ६५३२. जघन्य अतिस्थापनाके ऊपर फिर भी आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण बन्धकी वृद्धि होने पर जघन्य निक्षेपका होना सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इससे आगे उत्कर्षण सम्भव है ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * यदि सत्कर्मसे जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण स्थितिबन्ध अधिक हो तो सत्कर्मको उस अग्रस्थितिका उत्कर्षण होता है । 5 ५३३. क्योंकि यहाँ पर जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप अविकलरूपसे पाये जाते हैं। अब इससे आगे जो एक एक समय अधिकके क्रमसे बन्धकी वृद्धि होती है सो उसका अन्तर्भाव अतिस्थापनामें होता है या निक्षेपमें ऐसी पृच्छाके होने पर उत्तरस्वरूप आगेका सूत्र कहते हैं * तदनन्तर एक समय अधिक स्थितिबन्धके होनेपर निक्षेप उतना ही रहता है। किन्तु अतिस्थापना वृद्धिको प्राप्त होती है। 5 ५३४. शंका-ऐसा क्यों है ? समाधान_क्योंकि सर्वत्र अतिस्थापनाकी वृद्धिपूर्वक ही निक्षेपकी वृद्धि देखी जाती है। किन्तु वह अतिस्थापनाकी उत्कृष्ट वृद्धि : कितनी होती है ऐसी आशंका होने पर उसका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इस प्रकार अतिस्थापनाके एक प्रावलिप्रमाण होने तक उसकी वृद्धि होती रहती है। ५३५. स्थितिबन्धकी वृद्धि के साथ वह जघन्य अतिस्थापना एक एक समय अधिकके क्रमसे बढ़ती हुई पूरी एक श्रावलिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापनाके प्राप्त होने तक बढ़ती जाती है यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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