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________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ * जइ संतकम्मादो बंधो दुसमयुत्तरो तिस्से वि संतकम्मअग्गहिदीए पत्थि उक्कड्डणा। ६५२९. जइ संतकम्मादो दुसमयुत्तरो बंधो होइ तिस्से वि बंधट्ठिदीए सरूवेण संतकम्मअग्गट्ठिदीए पुव्वणिरुद्धाए उक्कड्डणा णत्थि । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । * एत्थ प्रावलियाए असंखेजदिभागो जहरिणया अइच्छावणा । ६५३०. एवं तिसमयुत्तरादिकमेण बंधउड्डीए संतीए वि णत्थि वुक्कड्डणा जाव आवलि० असंखे०भागमेत्तो ण वड्डिदो त्ति वुत्तं होइ । कुदो एवं ? एत्थ जहण्णाइच्छावणाए आवलि० असंखे०भागमेत्तीए तासिं द्विदीणमंतब्भावदंसणादो । ॐ जदि जत्तिया जहरिणया अइच्छावणा तत्तिएण अभहिरो संतकम्मादो बंधो तिस्से वि संतकम्मअग्गद्विदीए पत्थि उक्कड्डणा। ५३१. कुदो ? एत्थ जहण्णाइच्छावणाए संतीए वि तप्पडिबद्धजहण्णणिक्खेवस्स अञ्ज वि संभवाणुवलंभादो। ण च णिक्खेवविसएण विणा उक्कड्डणासंभवो अस्थि, विप्पडिसेहादो । सो पुण जहण्णणिक्खेवो केत्तियो इदि आसंकाए उत्तरमाह ॐ अण्णो श्रावलियाए असंखेजदिभागो जहएणो णिक्खेवो। दोनोंका अभाव है। * यदि सत्कर्मसे बन्ध दो समय अधिक हो तो उस स्थितिमें भी सत्कर्मकी स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता है। ६५२६. यदि सत्कर्मसे दो समय अधिक स्थितिका बन्ध होता है तो उस बन्ध स्थितिमें भी पूर्वमें विवक्षित सत्कर्मकी अग्रस्थितिका स्वभावसे उत्कर्षण नहीं होता। कारणका कथन पहलेके समान करना चाहिये। * यहाँ पर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य अतिस्थापना होती है । ६ ५३०. इस प्रकार तीन समय अधिक आदिसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भाग तक बन्धकी वृद्धि होने पर भी उत्कर्षण नहीं होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-ऐसा क्यों है ? समाधान-क्योंकि यहाँ पर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य प्रतिस्थापनामें उन बन्ध स्थितियोंका अन्तर्भाव देखा जाता है। * जितनी जघन्य अतिस्थापना है यदि सत्कर्मसे उतना अधिक बन्ध होवे तो भी उस बँधी हुई स्थितिमें सत्कर्मकी अग्रस्थितिका उत्कर्षण नहीं होता है। ६५३१. क्योंकि यहाँ पर जघन्य प्रतिस्थापनाके होते हुए भी उससे सम्बन्ध रखनेवाला जघन्य निक्षेप अभी भी नहीं पाया जाता है। और निक्षेपविषयक बन्धस्थितिके विना उत्कर्षण हो नहीं सकता है, क्योंकि इसके बिना उत्कर्षणका होना निषिद्ध है। परन्तु वह जघन्य निक्षेप कितना है ऐसी आशंकाके होनेपर उत्तरस्वरूप आगेका सूत्र कहते हैं * एक अन्य आवलिके अखंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य निक्षेप होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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