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________________ २५७ गा० ५८] हिदिसंकमे उक्कडणा असंभवादो । तम्हा उकस्साबाहाए समयुत्तरावलियाए च ऊणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिक्खेवो त्ति सिद्धं । किमेदिस्से चेव एकिस्से उदयावलियबाहिरद्विदीए उक्कस्सणिक्खेवो, आहो अण्णासिं पि द्विदीणमत्थि त्ति एत्थ णिण्णयं' कस्सामो। एत्तो उवरिमाणं पि आवाहान्भंतरब्भुवगमाणं द्विदीणं सव्वासिमेव पयदुकस्सणिक्खेवो होइ । णवरि आबाहाबाहियपढमणिसेयहिदीए हेढदो आवलियमेत्ताणमाबाहभंतरहिदीणमुक्कस्सओ णिक्खेवो ण संभवइ, तत्थ जहाकममाबाहाबाहिरणिसेयट्ठिदीणमइच्छावणावलियाणुप्पवेसेणुकस्सणिक्खेवस्स हाणिदसणादो। ६५२६. एवमेत्तिएण पबंधेण णिव्याघादविसयजहण्णुक्कस्सणिक्खेवमइच्छावणं च परूविय संपहि वाघादविसए तदुभयं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ वाघादेण कधं? ५२७. सुगममेदं पुच्छावकं । ॐ जइ संतकम्मादो बंधो समयुत्तरो तिस्से द्विदीए णत्थि उक्कड्डणा। ६५२८. संतकम्मादो जइ बंधो समयुत्तरो तिस्से द्विदीए उवरि संतकम्मअग्गहिदीए णस्थि उक्कड्डणा। कुदो ? जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवाणं तत्थासंभवादो । इसलिये उत्कृष्ट आबाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिक्षेप होता है यह बात सिद्ध हुई। शंका-क्या उदयावलिके बाहरकी इसी एक स्थितिका उत्कृष्ट निक्षेप होता है या अन्य स्थितियोंका भी उत्कृष्ट निक्षेप होता है ? समाधान-अब इस प्रश्नका निर्णय करते है-इस स्थितिसे ऊपर आबाधाके भीतर जितनी भी स्थितियाँ स्वीकार की गई हैं उन सभीका प्रकृत उत्कृष्ट निक्षेप होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आबाधाके बाहर प्रथम निषेककी स्थितिसे नीचेकी एक आवलिप्रमाण आबाधाके भीतरकी स्थितियोंका उत्कृष्ट निक्षेप सम्भव नहीं है, क्यों कि वहाँ क्रमसे आबाधाके बाहरकी निषेक स्थितियोंका अतिस्थापनावलिमें प्रवेश हो जाने के कारण उत्कृष्ट निक्षेपकी हानि देखी जाती है। ५२६. इस प्रकार इतने कथन द्वारा निर्व्याघातविषयक जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेप और अतिस्थापनाका कथन करके अब व्याघातविषयक इन दोनोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * व्याघातकी अपेक्षा उत्कर्षण किस प्रकार होता है ? __५२७, यह पृच्छासूत्र सुगम है। * यदि सत्कर्मसे बन्ध एक समय अधिक हो तो उस स्थितिमें उत्कर्षण नहीं होता है। ६५२८. यदि सत्कर्मसे बन्ध एक समय अधिक हो तो उस बंधनेवाली स्थितिमें सत्कर्मकी अग्रस्थितिका उत्कर्षण नहीं होता है, क्योंकि वहाँ पर जघन्य अतिस्थापना और निक्षेप इन १. ता.प्रतौ त्ति ( तप्पडि ) बद्धणिएणयं, प्रा०प्रतौ त्ति बणिएणयं इति पाठः । २. ता प्रतौ -बाहिय ( र ) पढम इति पाठः। ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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