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२६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ उवरि वि अइच्छावणा किण्ण वड्डाविजदे ? ण, पत्तपयरिसपज्जंताए पुण बुड्डिविरोहादो। एत्तो उवरि आवलियमेत्ताइच्छावणं धुवं काऊण समयुत्तरादिकमेण णिक्खेवो वड्डावेदब्बो त्ति परूवेदुमुत्तरसुत्तमाह
* तेण परं णिक्खेवो वड्डइ जाव उक्कस्सो णिक्खेवो त्ति ।
५३६. एत्थ ताव पुवणिरुद्धसंतकम्मअग्गद्विदीए उकस्सणिक्खेववुड्डी समयुत्तरकमेण अइच्छावणावलियाहियहेट्ठिमअंतोकोडाकोडीपरिहीणकम्महिदिमेत्ता होइ । णवरि बंधावलियाए सह अंतोकोडाकोडी ऊणियव्वा । एसा च आदेसुक्कस्सिया । एत्तो हेट्ठिमाणं संतकम्मदुचरिमादिद्विदीणं समयाहियकमेण पच्छाणुपुवीए णिक्खेववुड्डी वत्तव्वा जाव ओघुक्कस्सणिक्खेवं पत्ता त्ति । सो वुण ओघुक्कस्सओ णिक्खेवो केत्तियमेत्तो होइ ति णिण्णयविहाणटुं ताव पुच्छासुत्तमाह
& उक्कस्सो णिक्लेवो को होइ ? ५३७. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
जो उक्कस्सियं ठिदि बंधियूणावलियमदिक्कतो तमुक्कस्सयट्ठिदिमोकड्डियूण उदयावलियबाहिराए विदियाए ठिदीए णिक्खिवदि । वुण से इस सूत्रका अभिप्राय है।
शंका-इससे आगे भी अतिस्थापना क्यों नहीं बढ़ाई जाती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि परम प्रकर्षको प्राप्त हो जाने पर फिर उसकी वृद्धि होने में विरोध आता है।
इससे आगे आवलिप्रमाण अतिस्थापनाको ध्रुव करके एक एक समय अधिकके क्रमसे निक्षेपकी वृद्धि करनी चाहिये ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* उससे आगे उत्कृष्ट निक्षेपके प्राप्त होनेतक निक्षेपकी वृद्धि होती है ।
६५३६. यहाँ पर पूर्व में विवक्षित सत्कर्मकी अग्रस्थितिके उत्कृष्ट निक्षेपकी वृद्धि एक एक समय अधिकके क्रमसे होती हुई अतिस्थापनावलिसे अधिक जो अधस्तन अन्तःकोड़ाकोड़ी उससे हीन कर्मस्थितिप्रमाण होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बन्धावलिके साथ अन्तःकोड़ाकोड़ीको कम करना चाहिये । यह आदेशसे उत्कृष्ट वृद्धि है। फिर इससे नीचेकी सत्कर्मकी द्विचरम आदि स्थितियोंकी एक एक समय अधिकके क्रमसे पश्चादानुपूर्वी की अपेक्षा निक्षेपवृद्धि तब तक कहनी चाहिए जब तक वह ओघसे उत्कृष्ट निक्षेपको न प्राप्त हो जाय । किन्तु ओघकी अपेक्षा वह उत्कृष्ट निक्षेप कितना होता है ऐसा निर्णय करनेके लिए आगेका पृच्छासूत्र कहते हैं
* उत्कृष्ट निक्षेप कितना है। ६ ५३७. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेके बाद एक आवलिको बिताकर उस उत्कृष्ट स्थितिका अपकर्षण करके उदयावलिके बाहर दूसरी स्थितिमें निक्षेप करता है। फिर
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