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________________ २४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ विसत्रो । आवलियवे-तिभागा च अइच्छावणा त्ति भण्णइ । कथमावलियाए कदजुम्मसंखाए तिभागो घेत्तुं सकिञ्जदे ? ण, रूवूणं काऊण तिहागीकरणादो। तम्हा समयूणावलियवे-तिभागा अइच्छावणा । समयूणावलियतिभागो रूवाहिओ णिक्खेवो त्ति णिच्छओ कायव्वो। ६५००. संपहि एदम्मि विसए पदेसणिसेगकमजाणावणमुत्तरसुत्तमोइण्णं * उदए बहुअं पदेसग्गं दिज्जइ । तेण परं विसेसहीणं जाव प्रावलियतिभागो त्ति ।। ६५०१. सुगममेदं सुत्तं । एवमुदयावलियबाहिराणंतरविदीए ओकड्डणाविहि परूविय पुणो तदणंतरोवरिमद्विदिओकड्डणाए णाणत्तसंभवं पदुप्पाएदुमुत्तरसुत्तं भणइ 8 तदो जा विदिया' हिदी तिस्से वि तत्तिगो चेव णिक्खेवो । अइच्छावणा समयुत्तरा। ५०२. तदो पुव्वणिरुद्धविदीदो अणंतरा जा हिदी उदयावलियबाहिरविदियट्ठिदि त्ति उत्तं होइ । तिस्से वि तत्तिओ चेव णिक्खेवो होइ, तत्थ णाणत्ताभावादो। अइच्छावणा स्थितिका निक्षेपका विषय है और आवलिका दो बटे तीन भाग अतिस्थापना है ऐसा यहाँ कहा गया है। शंका-श्रावलिकी परिगणना कृतयुग्मसंख्यामें की गई है इसलिए उसका तीसरा भाग कैसे ग्रहण किया जा सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि श्रावलिमेंसे एक समय कम करके उसका तीसरा भाग किया है। इसलिए एक समय कम आवलिके दो बटे तीन भागप्रमाण अतिस्थापना है और एक समय कम श्रावलिका तीसरा भाग एक अधिक करने पर निक्षेप है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये। ५००. अब इस विषयमें प्रदेशोंके निक्षेपके क्रमका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उदयमें बहुतसे प्रदेश दिये जाते हैं । उससे आगे आवलिका तीसरा भाग प्राप्त होने तक विशेषहीन विशेषहीन प्रदेश दिये जाते हैं । ५०१. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार उदयावलिके बाहर अनन्तर समीपवर्ती स्थितिकी अपकर्षणविधिका कथन करके अब इस स्थितिसे अनन्तर उपरिम समयवर्ती स्थितिके अपकर्षणमें जो नानात्व सम्भव है उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इस स्थितिके बाद जो दूसरी स्थिति है उसका भी उतना ही निक्षेप होता है। किन्तु अतिस्थापना एक समय अधिक होती है। ५०२. उस पूर्व विवक्षित स्थितिसे जो अनन्तर समयवती स्थिति है अर्थात् उदयावलिके बाहर जो द्वितीय समयवती स्थिति है उसका भी उतना ही निक्षेप होता है, क्योंकि उसमें कोई भेद १. ता०प्रतौ जावदिया इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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