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________________ द्विदिकमे ओकणा मीमांसा २४३ गा० ५८ ] त्थ सा दी द्विदिअसंकमो ति भण्णदे । एत्थ ताव ओकड्डणासंक्रमस्स सरूवविमुवरिमं पबंधमाह - * ओड्डित्ता कथं णिक्खिवदि ठिदिं । $ ४९७, ट्ठिदिमोकड्डिऊण हेट्ठा णिक्खिवमाणो कथं णिक्खिवइति पुच्छिदं होइ ? एवं पुच्छिदे उदयावलियबाहिरट्ठिदिमादि काढूण सव्वासि हिदीणमोकडुणविहाणं परूवेमाणो उदयावलियबाहिराणंतरद्विदीए ओकड्डणा केरिसी होइ ति सिस्सा हिप्पायमासंकिय पुच्छावकमाह * उदयावलियचरिमसमयअपविट्ठा जा हिदी सा कथमोकड्डिज्जइ ? • ४९८. एदिस्से ट्ठिदीए अइच्छावणा णिक्खेवो वा किंपमाणो होइ त्ति पुच्छा कदा भवदि । एवं पुच्छिदत्थविसए णिण्णयजणणट्ठमुवरिमसुत्तमाह । * तिस्से उदयादि जाव आवलियतिभागो ताव लिक्खेवो, अवलिया वे-तिभागा अइच्छावणा । ७ ४९९ तं जहा - तमोकड्डिय उदयादि जाव आवलियतिभागो ताव णिक्खवदि । आवलियवे - तिभाग मेत्तमुवरिमभागे अइच्छावे । तदो आवलियतिभागो तिस्से शिक्वेदचाहिये | इससे यह अभिप्राय भी प्रकट हो जाता है कि जिस स्थितिके अपकर्षण आदिक नहीं होते वह स्थिति स्थिति संक्रम कहलाती है । अब यहाँ पर अपकर्षणासंक्रमके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * स्थितिका अपकर्षण करके उसका निक्षेप किस प्रकार किया जाता है ? $ ४६७. स्थितिका अपकर्षण करके नीचेकी स्थितिमें निक्षेप करते समय उसका निक्षेप कैसे किया जाता है यह इस सूत्रद्वारा पृच्छा की गई है । इस प्रकारकी पृच्छा करने पर उदयावलिके बाहरकी स्थिति से लेकर सब स्थितियों के अपकर्षणकी विधिका निरूपण करते हुए सर्व प्रथम उदयावलिके बाहर अनन्तर समय में स्थित स्थितिका अपकर्षण किस प्रकार होता है इस प्रकार शिष्य के अभिप्रायको आशंकारूपसे ग्रहण करके आगेका पृच्छासूत्र कहते हैं * जो स्थिति उदयावलिके अन्तिम समयमें प्रविष्ट नहीं हुई है उसका अपकर्षण किस प्रकार होता है ? $ ४६८, इस स्थितिकी अतिस्थापनाका और निक्षेपका क्या प्रमाण है यह इस सूत्रद्वारा पृच्छा की गई है। इस प्रकार पूँछे गये अर्थका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उदय समयसे लेकर आवलिके तीसरे भागतक उस स्थितिका निक्षेप होता है और आवलिका शेष दो बटे तीन भाग अतिस्थापनारूप रहता है । ६. ४६६ खुलासा इस प्रकार है- - उस स्थितिका अपकर्षण करके उदय समय से लेकर वलिके तीसरे भाग तक उसका निक्षेप करता है और आवलिके दो बटे तीन भागप्रमाण ऊपर के हिस्सेको अतिस्थापनारूपसे स्थापित करता है । इसलिए आवलिका तीसरा भाग उस अपकर्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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